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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
(१) असद्-अकरणात् : जिसका संपूर्ण अभाव हो (असत्), वह कभी भी उत्पन्न नहीं हो सकता । उत्पत्ति से पहले भी कार्य, कारण में कोई न कोई स्वरुप में अस्तित्व रखता ही होगा । कारण में विद्यमान कार्य की ही अभिव्यक्ति होती है। अविद्यमान कार्य की उत्पत्ति हो सकती नहीं है। जैसे कि, नीलरुप को हजार उपाय से भी पीला नहीं किया जा सकता। क्योंकि नील में पीत का संपूर्ण अभाव है। अथवा तो रेत में से तेल बनाया नहीं जा
सकता ।
(२) उपादानग्रहणात् : किसी निश्चित कार्य की उत्पत्ति के लिए किसी निश्चित उपादान का आधार लिया जाता है। जैसे कि, दही प्राप्त करने के लिए दूध का ही उपयोग होता है, पानी का उपयोग कोई करता नहीं है। अथवा वस्त्र बनाने की इच्छावाले लोग तंतुओ को ही लेते है । यदि कार्य अपने कारण में न होता, तो कुछ खास वस्तु के उत्पादन के लिए कुछ खास ही वस्तु लेने की जरुरत ही नहीं रहती । तो फिर मिट्टी में से भी वस्त्र बनाया जा सकता और रेत में से तेल पाया जा सकता । परन्तु ऐसा तो नहीं है ।
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(३) सर्वसम्भवाभावात् : कोई भी पदार्थ अन्य किसी भी पदार्थ में से नहीं बन सकता। यदि कार्य और कारण के बीच किसी संबंध का स्वीकार न किया जाये तो फिर कोई भी वस्तु, दूसरी किसी भी वस्तु में से बन सकेगी। जैसे कि घास, धूल या रेत में से सुवर्ण नहीं बन सकता । प्रत्येक पदार्थ की उत्पत्ति निश्चित मर्यादा और नियमो के अधीन रहकर ही होती है। और इस मर्यादा का कारण यही है कि, कार्य कारण के साथ पहले से ही है 1
सम्बद्ध
(४) शक्तस्य शक्यकरणात् : जैसे कोई भी कार्य, कोई भी कारण में से उत्पन्न नहीं हो सकता। वैसे कोई भी कारण कोई भी कार्य को उत्पन्न नहीं कर सकता है । परन्तु प्रत्येक कारण कुछ खास ही कार्य उत्पन्न करने की शक्ति रखता है। उदा. सूर्य सूर्यकान्तमणि में से अग्नि उत्पन्न करने की शक्ति रखता है, परन्तु वह चन्द्रकान्तमणि में से शीतल जल उत्पन्न नहीं कर सकता है ।
(५) कारणभावात् : कार्य, कारण का ही स्वभाव रखता है। कार्य कारण से तत्त्वतः भिन्न नहीं है। कारण से नितान्त भिन्न कार्य, उसी ही कारण में से उत्पन्न नहीं होता है। सोने की अंगूठी सुवर्ण (सोने) के सिवा अन्य किसी पदार्थ में से नहीं बन सकती ।
उपर के पाँच कारण ऐसा बताते है कि, कार्य पहले से ही सूक्ष्मरुप से अपने कारण में विद्यमान होता है। कारण के प्रमुख गुणधर्म उसमें पहले ही होते है। योग्य समय आने पर कार्य स्वकारण में से कार्य रुप में प्रकट होता है।
अद्वैतवेदान्त मानता है कि कार्य कारण में पहले अवस्थित होता है, वह सच है । परन्तु कार्य कारण से भिन्न भी है और फिर सत्य भी है, ऐसा मानना योग्य नहीं है। कारण वही सत्य है, जो कार्य जैसा लगता है, वह कारण का परिणाम नहीं है परन्तु आभास है। क्योंकि समग्र विश्व का कारण एक ही है। वह ब्रह्म है । ब्रह्म के सिवा ओर कुछ भी सत् नहीं है। ब्रह्म में से नाम-रुपात्मक जगत् उत्पन्न होता दिखाई देता है। वह आभास है - भ्रम है- विवर्त है - रज्जु में (डोरमें) सर्प का (सांपका) विवर्त होता है। वैसे ही यहाँ समजना चाहिए। नैयायिको ने सत्कार्यवाद का विरोध करके असत्कार्यवाद को यथार्थ सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। उसका खंडन श्री वाचस्पतिमिश्र ने ९वीं कारिका की कौमुदी में किया है। उसका सार ऐसा निकाला जा सकता है कि मूलतत्त्व की दृष्टि से कार्य और कारण के बीच तादात्म्य होना आवश्यक है । परन्तु अवस्था और प्रयोजन की दृष्टि से उन दोनो के बीच भिन्नता भी है। फिर भी दोनो नितान्त भिन्न है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। घडे से पानी भरा जा सकता है, मिट्टी के जत्थे से नहीं परन्तु इसलिए घडा और मिट्टी भिन्न है ऐसा नहीं कहा जा सकता ।
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