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________________ २६२ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ४४, सांख्यदर्शन यदुक्तं परैरेव-“पुराणं मानवो धर्मः साङ्गो वेदश्चिकित्सितम् । आज्ञासिद्धानि चत्वारि न हन्तव्यानि हेतुभिः ।।१।।" [मनु० १२/११०] परैर्हि दोषसंभावनयैव स्वमतविचारणा नाद्रियते । यत उक्तम्-“अस्ति वक्तव्यता काचित्तेनेदं विचार्यते । निर्दोषं काञ्चन चेत्स्यात्परीक्षाया विभेति किम् ।।१।।” इति अत एव जैना जिनमतस्य निर्दूषणतया परीक्षातो निर्भीका एवमुपदिशन्ति । सर्वथा स्वदर्शनपक्षपातं परित्यज्य माध्यस्थ्येनैव युक्तिशतैः सर्वदर्शनानि पुनः पुनर्विचारणीयानि, तेषु च यदेव दर्शनं युक्तियुक्ततयावभासते, यत्र च पूर्वापरविरोधगन्धोऽपि नेक्ष्यते, तदेव विशारदैरादरणीयं नापरमिति । तथा चोक्तम्-“पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ।।१।।" ।। लोकतत्त्वनिर्णय - ३८ ।। ।।४४ ।। इति श्रीतपोगणनभोङ्गणदिनमणिश्रीदेवसुन्दरसूरिपादपद्मोपजीविश्रीगुणरत्नसूरिविरचितायां तर्क-रहस्यदीपिकाभिधानायां षड्दर्शनसमुञ्चयवृत्तौ सांख्यमतरहस्यप्रकाशनो नाम तृतीयोऽधिकारः ।। टीकाका भावानुवाद : इस प्रकार से केवल बौद्ध नैयायिकमत का ही नहीं परन्तु सांख्यमत का भी संक्षेप कहा गया । अब जैनमत का संक्षेप कहा जाता है। वह जैनमत किस प्रकार का है ? जैनमत का सर्व प्रमाणो से अबाधित स्वरुप होने के कारण सुंदर विचारोवाला है। परन्तु अविचारित रमणीय बातो से भरा हुआ नहीं है। इसके द्वारा सूचित होता है कि अन्यदर्शन केवल अविचारित रुप में रमणीय है। अर्थात् जैनदर्शन प्रमाण से अबाधित है और अन्यदर्शन प्रमाण से बाधित है। अन्यदर्शन अविचारित रमणीय है। क्योंकि दूसरो के द्वारा कहा गया है कि.... "पुराण, मानवधर्म, मनुस्मृति आदि अंग उपांग सहित वेद तथा आयुर्वेदशास्त्र ये चार आज्ञासिद्ध होने से (परीक्षा के बिना) प्रमाण मान ले और उसमें कोई तर्क न करे । अर्थात् हेतुओ के द्वारा उसका खंडन न करे।" अन्यदर्शनो के आचार्यो के द्वारा (अपने मत में) दोषो की संभावना होने से अपने मत की विचारणा के लिए तैयार नहीं होते है। जिससे कहा है कि, "हमारे द्वारा उनके मत में कुछ असंगतियां कहने योग्य है। परन्तु उनके द्वारा विचारणा करने की तैयारी ही नहीं है। यदि उनका मत निर्दोष है, तो परीक्षा के लिए किस कारण से घबराते है ?" इसलिए ही जैनमत निर्दोष होने के कारण जैन मत परीक्षा से घबराते नहीं है और परीक्षा करने का उपदेश देते है। __(इसलिए) सर्वथा स्वदर्शन का पक्षपात छोडकर मध्यस्थपन से सेंकडो युक्तियों के द्वारा सभी दर्शनो को बारबार सोचने चाहिए। विचारणा के अंत में उन दर्शनो में जिस दर्शन की बात युक्तियुक्त लगे और जिसमें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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