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षड्दर्शन समुच्चय भाग १, श्लोक - ४४, सांख्यदर्शन
पूर्वापर बातो के विरोध की गंध भी न दिखे, वही मत का पंडितो के द्वारा आदर करना चाहिए, अन्य मत का नहि। इसलिए ही पू.आ. भ. हरिभद्रसूरिजी महाराजा ने कहा है कि.....
“वीर परमात्मा में मुजे पक्षपात नहीं है या कपिलादि अन्यदर्शन के प्रणेताओ में द्वेष नहीं है । परन्तु जिन का वचन युक्तियुक्त हो, उसके, वचन का परिग्रह (स्वीकार) करना चाहिए।"
॥ इस तरह से श्री तपागच्छरुपी गगनमण्डप में सूर्यसमान तेजस्वी श्रीदेवेन्द्रसूरि महाराजा के चरण कमलसेवी श्री गुणरत्नसूरि महाराजा विरचित तर्करहस्यदीपिका नाम की षड्दर्शन समुच्चय ग्रंथ की वृत्ति में सांख्यमत के रहस्य को प्रकट करनेवाला तृतीय अधिकार सानुवाद सानंद पूर्ण हुआ ॥
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॥ अस्तु ॥
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