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________________ षड्दर्शन समुचय भाग - १, श्लोक - ४४, सांख्यदर्शन समज लेना । त्रैगुण्यरुप सामान्य है। पूर्व पूर्व प्रमाण है। उत्तर उत्तर फल है (अर्थात् जब सन्निकर्षो को प्रमाण मानोंगे, तब निर्विकल्पकज्ञान फल होगा। और जब निर्विकल्पक ज्ञान को प्रमाण मानोंगे, तब सविकल्पकज्ञान फल होगा) २६१ सांख्यकारिका में कहा है कि "कारणे कार्यं सदेवोत्पद्यते, असदकारणादिभ्यो हेतुभ्यः । " कारण में कार्य की सत्ता होती है । इसलिए कारण में विद्यमान कार्य ही उत्पन्न होता है। क्योंकि असदकारणादि पाँच कारण है I वे पाँच कारण बताते हुए सांख्यकारिका में कहा है कि (१) असत् कारण नहि बन सकेगा। (२) कारण के साथ (कार्यका) निश्चित संबंध होता है । (३) प्रत्येक कार्य प्रत्येक कारण में से उत्पन्न नहीं होता है। (४) जो उत्पन्न करने के लिए कारण समर्थ हो, उसे ही उत्पन्न कर सकता है । (५) कार्य कारण का ही स्वभाव रखता है। ये पाँच कारण से (कारण में विद्यमान कार्य ही उत्पन्न होता है। ऐसा सत्कार्यवाद (सांख्यो के द्वारा) स्वीकार किया गया है। (इस विषय में टिप्पनी में विस्तार से (पृ. २६८) वर्णन किया है। वह देख लेना ।) यदि कारण में अविद्यमान (असत्) कार्य उत्पन्न होता हो, तो सर्वत्र सर्व को सर्व उत्पन्न कर सकेगा । अर्थात् तृणादि से सुवर्णादि भी उत्पन्न होगा, परन्तु वैसा नहीं है । इसलिए कारण में विद्यमान कार्य उत्पन्न होता है, वैसा सिद्धांत निश्चित होता है। तथा केवल द्रव्य ही होते है । परन्तु उत्पत्ति और विनाशस्वरुप कोई भी पर्याय नहीं होते है। परन्तु आविर्भाव को ही उत्पत्तिपर्याय और तिरोभाव को ही विना पर्याय जाता है। कहा सांख्यदर्शन के षष्टितंत्र के पुनः संस्करणरुप माठरभाष्य, सांख्यसप्तति, तत्त्वकौमुदी, गौडपादभाष्य, आत्रेयतंत्र इत्यादि ग्रंथ है | ||४३|| सांख्यमतमुपसंजिहीर्षन्नुत्तरत्र जैनमतमभिधित्सन्नाह- अब सांख्यमत का उपसंहार करते हुए, जैनमत का निरुपण करने की प्रतिज्ञा करने के लिए कहते है कि.... (मूल श्लो० ) एवं सांख्यमतस्यापि समासो गदितोऽधुना जैनदर्शनसंक्षेपः कथ्यते सुविचारवान् ।।४४ ।। श्लोकार्थ : इस तरह से सांख्यमत का भी संक्षेप कहा गया। अब सुविचारवान् = प्रमाणसिद्ध जैनमत का संक्षेप कहा जाता है | ॥ ४५ ॥ 1 व्याख्या - एवमुक्तविधिना सांख्यमतस्यापि न केवलं बौद्धनैयायिकयोरित्यपिशब्दार्थः समासः संक्षेपोऽधुना गदितः । जैनदर्शनसंक्षेपः कथ्यते । कथंभूतः सुविचारवान् - सुष्ठु सर्वप्रमाणैरबाधितस्वरूपत्वेन शोभना विचाराः सुविचारास्ते विद्यन्ते यस्य स सुविचारवान्, न पुनरविचारितरमणीयविचारवानिति । अनेनापरदर्शनान्यविचारितरमणीयानीत्यावेदितं मन्तव्यम् 1 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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