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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - ४३, सांख्यदर्शन वृत्ति निर्विकल्पक है । इस निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का व्याख्यान बौद्धमत में की हुई प्रत्यक्ष की व्याख्या अनुसार समज लेना । श्री ईश्वरकृष्णने प्रत्यक्ष का लक्षण इस तरह से किया है - श्रोत्रादि इन्द्रियो से उत्पन्न हुए प्रतिनियत अध्यवसाय को प्रत्यक्ष कहा जाता है। अर्थात् प्रत्येक विषय के प्रति इन्द्रिय के व्यापार को प्रत्यक्ष प्रमाण कहा जाता है। २५९ (सांख्यसूत्र में प्रत्यक्ष का लक्षण इस तरह से किया है - इन्द्रिय और अर्थ के संबंध से जो ज्ञान उत्पन्न हो, उसे प्रत्यक्षज्ञान कहा जाता है । प्रत्यक्षज्ञान में इन्द्रिय और अर्थ दोनो की विद्यमानता की आवश्यकता है। इसलिए प्रत्यक्षज्ञान अर्थ और इन्द्रिय उभय का फल है।) अब अनुमान का लक्षण बताते है - अनुमान के तीन प्रकार है - (१) पूर्ववत्, (२) शेषवत्, (३) सामान्यतोदृष्ट । उसमें नदी के उन्नति के दर्शन से अर्थात् बाढ़ के कारण पानी से भरी हुई नदी के दर्शन से उपरीतन (उपरके) विस्तार में बरसात हुई होगी, वैसा अनुमान होता है। उसे पूर्ववत् अनुमान कहा जाता है। समुद्र के एक बुंद को चखने से जल खारा है, वैसा ज्ञान होने से समुद्र के शेष पानी में खारेपन का अनुमान करना उसे शेषवत् अनुमान कहा जाता है । अथवा खाना खाने बैठते वक्त थाली में रहे हुए एक चावल के दाने को दबाने से, बाकी के चावल के दाने पक्व है या अपक्व है ? (पक गये है या कच्चे है ?) उसका अनुमान होता है । उसको शेषवत् अनुमान कहा जाता है। लिंगपूर्वक लिंगि का ज्ञान हो, उसे सामान्यतोदृष्ट अनुमान कहा जाता है। जैसे कि, त्रिदंडरूप लिंग के दर्शन से, अदृष्ट (सामने नहीं दिखाई देता ) भी परिव्राजक लिंगि का ज्ञान होता है, वह सामान्यतोदृष्ट अनुमान है। इस तरहसे तीन अनुमान के प्रकार है । अथवा सांख्यो के द्वारा अनुमान का सामान्य लक्षण कहा गया है कि, लिंग और लिंग के संबंध को ग्रहण करके लिंग से लिंगि का ज्ञान करना वह अनुमान । 'आप्त और श्रुति (वेद) के वचनो को शाब्द (आगम) प्रमाण कहा जाता है । राग-द्वेष से रहित ब्रह्म, सनत्कुमार, इत्यादि आप्तपुरुष है। श्रुति अर्थात् वेद । उस आप्तपुरुष तथा श्रुति के वचनो को शाब्दप्रमाण कहा जाता है । अत्रानुक्तमपि किंचिदुच्यते । चिच्छक्तिर्विषयपरिच्छेदशून्या नार्थं जानाति, बुद्धिश्च जडान चेतयते, सन्निधानात्तयोरन्यथा प्रतिभासनम्, प्रकृत्यात्मसंयोगात्सृष्टिरुपजायते, प्रकृतिविकारस्वरूपं कर्म, तथा त्रैगुण्यरूपं सामान्यम्, प्रमाणविषयस्तात्त्विक इति । अत्र त्र्यो गुणाः सत्त्वरजस्तमांसि । ततःस्वार्थे “ण्योनन्दादे” इति ण्यः, यथा त्रयो लोकास्त्रैलोक्यं, षड्गुणाः षाड्गुण्यम्, ततस्त्रैगुण्यं रूपं स्वभावो यस्य सामान्यस्य तत् त्रैगुण्यरूपमिति । प्रमााणस्य च फलमित्थम् । पूर्वं पूर्वं प्रमाणमुत्तरं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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