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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ४३, सांख्यदर्शन
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भृत्यगतावपि स्वामिन्युपचर्येते तत्फलस्य कोशलाभादेः स्वामिनि संबन्धात्, तथा भोगापवर्गयोः प्रकृतिगतयोरपि विवेकाग्रहात्पुरुषे संबन्ध इति ।। टीकाका भावानुवाद :
श्लोक में "बत" प्रश्नकार को उत्तर देते हुए आमंत्रण में बोला जाता है। पुरुष और प्रकृति के विवेकज्ञान से पुरुष का जो प्रकृति से वियोग होता है, उसे मोक्ष कहा जाता है। जैसे कि... "परमार्थ से यह पुरुष शुद्धचैतन्यस्वरुप है, परन्तु प्रकृति से मैं भिन्न हूँ। ऐसा जानता न होने से मोह से (प्रकृति के संयोग से) संसार में परिभ्रमण करता है।"
इसलिए सुख-दुःख-मोह के स्वभाववाली प्रकृति से (पुरुष भिन्न है), ऐसा विवेक जब तक प्राप्त नहीं होता, तब तक मोक्ष नहीं होता। परन्तु (पुरुष से भिन्न) प्रकृति का विवेक होने से प्रकृति की प्रवृत्ति शांत हो जाती है और पुरुष का शुद्धचैतन्यस्वरुप में अवस्थान होता है। वही मोक्ष है। मोक्ष बंध के विच्छेद से होता है। बंध तीन प्रकार का है। (१) प्राकृतिक, (२) वैकारिक, (३) दाक्षिण।
उसमें जिन को प्रकृति में आत्मज्ञान होता है अर्थात् जो प्रकृति को अपनी मानता है, वह प्रकृति की उपासना करता है और उनको प्राकृतिकबंध होता है। जो लोग विकारो को पुरुष मानकर अर्थात् भूत, इन्द्रिय, अहंकार, बुद्धिरुप विकारो को पुरुष मानकर उपासना करते है, उनको वैकारिक बंध होता है।
श्रुतिविहित यज्ञादि कर्म तथा झील-कुआं-तालाब आदि इष्टापूर्तकर्म करने में दाक्षिणबंध होता है । पुरुष तत्त्व को न जानते हुए सांसारिक सुखो की इच्छा से उपहत हुए मनवाला इष्टापूर्त कर्म करता है। वह दाक्षिणबंध से बंधाता है। कहा है कि, "जो मूढ मनुष्य इष्टापूर्तकर्म को ही श्रेष्ठ मानकर, अन्य कल्याणकारी कार्य न करते हुए इष्टापूर्तकर्म से प्राप्त हुए सुकृत से देवलोक में जाता है। परन्तु बाद में मनुष्य लोक में या उससे हीन तिर्यंचलोक में जन्म लेता है।"
बंध से परलोक में जन्म लेना, इत्यादि जन्म-मरणादिरुप संसार परिभ्रमण चलता है। सांख्यमत में जो प्रकृति या विकृति स्वरुप नहीं है, उस पुरुष का बंध, मोक्ष या संसार नहीं माना है। परन्तु बंध, मोक्ष और संसार, प्रकृति के ही माने है। सांख्यो ने कहा है कि... इसलिए कोई पुरुष बंधाता नहीं है। मुक्त नहीं होता है और संसार में परिभ्रमण नहीं करता है। परन्तु बहुस्वरुपवाली प्रकृति बंधाती है। मुक्त होती है। और संसार में परिभ्रमण करती है।
इतना निश्चित है कि, प्रकृति के बंध, मोक्ष और संसार का पुरुष में उपचार किया जाता है। जैसे, सैनिको का जय-पराजय स्वामि का जय-पराजय कहा जाता है। क्योंकि, उसके फलभूत धनादि की प्राप्ति स्वामी को होती है। वैसे भोग-अपवर्ग प्रकृति के होने पर भी विवेक के अभाव से पुरुष में भोग-अपवर्ग का उपचार होता है । अर्थात् भोग-अपवर्ग प्रकृतिगत होने पर भी भेदज्ञान न होने से पुरुष भोक्ता कहा जाता है। उसके कारण पुरुष में संसारी और मुक्त का व्यपदेश होता है।
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