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________________ २५६ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ४३, सांख्यदर्शन तुम रस्ता दिखाना) इस अनुसार से एक को रास्ता दिखलाना और एक को चलना, इस तरह से हम दोनो की वृत्ति है।" इसलिए अंध के द्वारा देखने का गुण न होने से पंगु को अपने कन्धे पे बिठाकर नगर को प्राप्त करके नाटकादि देखते और गीतादि इन्द्रियो के विषयो को तथा अन्य को भी प्राप्त करते हुए जिस प्रकार आनन्द करते है उसी प्रकार पंगुतुल्य (लंगडे जैसा) शुद्ध चैतन्यस्वरुप पुरुष भी अंध तुल्य (अंधे जैसी) सक्रिय और आश्रित ऐसी जड प्रकृति का संसर्ग पाकर बुद्धि के अध्यवसित शब्दादि विषयो को अपने स्वच्छ स्वरुप में प्रतिबिंबित करके (उस विषयादि) का अनुभव करता हुआ आनंद करता है और आनंद करता हुआ प्रकृति को ही मोह से सुख के स्वभाववाली मानता हुआ (प्रकृति के कंधे पर चढकर) संसार में परिभ्रमण करता है। ॥४२॥ तर्हि तस्य कथं मुक्तिः स्यादित्याह- तो फिर उस पुरुष की मुक्ति किस तरह से होती है ? (ऐसी शंका का जवाब देते हुए) कहते है कि.. (मूल श्लो०) प्रकृतिवियोगो मोक्षः पुरुषस्य बतैतदन्तरज्ञानात् । मानत्रितयं चात्र प्रत्यक्षं लैङ्गिक शाब्दम् ।।४३ ।। श्लोकार्थ : पुरुष-प्रकृति के विवेकज्ञान से पुरुष का जो प्रकृति से वियोग होता है, उसे पुरुष का मोक्ष कहा जाता है। सांख्य दर्शन में प्रत्यक्ष, अनुमान और शाब्द, ऐसे तीन प्रमाण है। ॥४३|| व्याख्या-बतेति पृच्छकानामामन्त्रणे, एतयोः प्रकृतिपुरुषयोर्यदन्तरं विवेकस्तस्य ज्ञानात्पुरुषस्य यः प्रकृतेर्वियोगो भवति, स मोक्षः । तथाहि-“शुद्धचैतन्यरूपोऽयं पुरुषः परमार्थतः । प्रकृत्यन्तरमज्ञात्वा मोहात्संसारमाश्रितः ।।१।।” ततः प्रकृतेः सुखदुःख-मोहस्वभावाया यावन्न विवेकेन ग्रहणं तावन्न मोक्षः, प्रकृतेविवेकदर्शने तु प्रवृत्तेरुपरतायां प्रकृतौ पुरुषस्य स्वरूपेणावस्थानं मोक्ष इति । मोक्षश्च बन्धविच्छेदाद्भवति, बन्धश्च प्राकृतिकवैकारिकदाक्षिणभेदात्त्रिविधःD-16 । तथाहि-प्रकृतावात्मज्ञानात् ये प्रकृतिमुपासते, तेषां प्राकृतिको बन्धः । ये विकारानेव भूतेन्द्रियाहंकारबुद्धीः पुरुषबुद्ध्योपासते, तेषां वैकारिकः । इष्टापूर्ते दाक्षिणः, पुरुषतत्त्वानभिज्ञो हीष्टापूर्तकारी कामोपहतमना बध्यत इति । “इष्टापूर्तं मन्यमाना वरिष्ठं, नान्यच्छ्रेयो येऽभिनन्दन्ति मूढाः । नाकस्य पृष्ठे ते सुकृतेन भूत्वा, इमं लोकं हीनतरं वा विशन्ति ।।१ ।।" [मुण्डक० १/२/ १०] इति । बन्धाञ्च प्रेत्यसंसरणरूपः संसारः प्रवर्तते । सांख्यमते च पुरुषस्य प्रकृतिविकृत्यनात्मकस्य न बन्धमोक्षसंसाराः, किं तु प्रकृतेरेव । तथा च कपिलाः । -“तस्मान्न बध्यते नैव मुच्यते नापि संसरति कश्चित् । संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः ।।१ ।।" [सांख्यका० ६२] इति । नवरममी बन्धमोक्षसंसाराः पुरुषे उपचर्यन्ते0-17 । यथा जयपराजयो (D-16-17) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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