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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ४१, सांख्यदर्शन
व्याख्या-एवममुनोक्तप्रकारेण सांख्यमते चतुर्विंशतितत्त्वरूपं प्रधानम् । प्रकृतिर्महानहंकारश्चेति त्रयं, पञ्च बुद्धीन्द्रियाणि, पञ्च कर्मेन्द्रियाणि, मनश्चैकं, पञ्च तन्मात्राणि, पञ्च भूतानि चेति चतुर्विंशतितत्त्वानि रूपं स्वरूपं यस्य तञ्चतुर्विंशतितत्त्वरूपं प्रधानं प्रकृतिर्निवेदितम् । तथा चोक्तम् (सांख्यकारिका ३३) “प्रकृतेर्महांस्ततोऽहंकारस्तस्माद्गणश्चषोडशकः । तस्मादपि षोडशकात्पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि ।।” अत्र प्रकृतिर्न विकारः, अनुत्पन्नत्वात् । बुद्ध्यादयश्च सप्त परेषां कारणतया प्रकृतयः, कार्यतया च विकृतयः उच्यन्ते । षोडशकश्च गणो विकृतिरेव कार्यत्वात् । पुरुषस्तु न प्रकृतिर्न विकृतिः, अनुत्पादकत्वादनुत्पन्नत्वाञ्च । तथा चेश्वरकृष्णः सांख्यसप्ततौ (कारिकायां) (३) “मूलप्रकृतिरविकृतिमहदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त । षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः ।।१ ।।" इति ।। टीकाका भावानुवाद :
ये कहे हुए प्रकार से सांख्यमत में चौबीस तत्त्वस्वरुप प्रधान है। प्रकृति, महान्, अहंकार ये तीन, पाँच बुद्धीन्द्रियाँ = ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, एक मन, पांच तन्मात्राएं और पांच भूत, इस अनुसार से चौबीस तत्त्वो जिसका स्वरुप है, वह चौबीस तत्त्वो रुप प्रधान का निरुपण किया गया है । तथा २२ वी सांख्यकारिका में कहा है कि...प्रकृति में से महान, महान में से अहंकार, अहंकार में से सोलह का समुदाय
और उस सोलह के समुदाय में से भी पांचभूत उत्पन्न होते है। अर्थात् प्रकृति = प्रधान २४ तत्त्वोरुप है। (यहाँ कारिका में सोलह के समुदाय में से पाँचभूतो की उत्पत्ति बताई है। परन्तु वह सोलह समुदाय अन्तर्गत पांचतन्मात्रा में से पाँचभूतोकी उत्पत्ति होती है, ऐसा जानना ।) __ यहाँ प्रकृति किसी का विकार नहीं है। अर्थात् किसीके कार्यरुप नहीं है। क्योंकि प्रकृति किसी से उत्पन्न होती नहीं है। महान (बुद्धि), अहंकार और पंचतन्मात्राएं, ये सात कार्य के उत्पादक कारण होने से प्रकृति है और कारणो से उत्पन्न कार्य होने से विकृति भी कही जाती है तथा उपर बताया गया सोलह का समुदाय (कारणो से उत्पन्न) कार्य होने से विकृति ही है। परंतु पुरुष किसी कार्य का उत्पादक कारण न होने से प्रकृति नहीं है या कारणो से उत्पन्न होनेवाला कार्य भी न होने से विकृति भी नहीं है। इसलिए ही श्री ईश्वरकृष्ण ने सांख्यसप्तति (कारिका ) में कहा है कि... "मूलप्रकृति विकृति नहीं है, महान आदि सात प्रकृति और विकृति दोनो है। सोलह का समुदाय विकृति ही है। पुरुष प्रकृति या विकृति भी नहीं है।" __ तथा महदादयः प्रकृतेर्विकारास्ते च व्यक्ताः सन्तः पुनरव्यक्ता अपि भवन्तीति स्वस्वरूपाद्मश्यन्त्यनित्यत्वात् । प्रकृतिस्त्वविकृता नित्याभ्युपगम्यते । ततो न कदाचिदपि सा स्वस्वरूपाद्मश्यति । तथा च महदादिकस्य प्रकृतेश्च स्वरूपं सांख्यैरित्थमूचे (सांख्यकारिका २०) । “हेतुमदनित्यमव्यापि सक्रियमनेकमाश्रितं लिङ्गम् । सावयवं परतन्त्रं, व्यक्तं विपरीतमव्यक्तम् ।।२।।” इति ।। तत्र हेतुमत्कारणवन्महदादिकं, अनित्यमित्युत्पत्तिधर्मकत्वाष्टुझ्यादेः, अव्यापीति प्रतिनियतं न सर्वगं, सक्रियमिति सह क्रियाभिरध्यवसायादिभिर्वर्तत इति सक्रियं-सव्यापारं
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