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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ४१, सांख्यदर्शन
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संचरणक्रियावदिति यावत्, अनेकमिति त्रयोविंशतिभेदात्मकं, आश्रितमित्यात्मोपकारकत्वेन प्रधानमवलम्ब्य स्थितं, लिङ्गमिति यद्यस्मादुत्पन्नं तत्तस्मिन्नेव लयं क्षयं गच्छतीति लिङ्गम् । तत्र भूतानि तन्मात्रेषु लीयन्ते, तन्मात्राणीन्द्रियाणि मनश्चाहंकारे, स च बुद्धौ, सा चाव्यक्ते, तञ्चानुत्पाद्यत्वान्न क्वचित्प्रलीयते सावयवमिति शब्दस्पर्शरूपरसगन्धात्मकैरवयवैर्युक्तत्वात्, परतन्त्रमिति कारणायत्तत्वादित्येवंरूपं व्यक्तं महदादिकम् ।
टीकाका भावानुवाद :
महान आदि प्रकृति के विकार व्यक्त होने पर भी अव्यक्त भी होता है। इसलिए अपने स्वरुप से भ्रष्ट होता होने से अनित्य है। प्रकृति कभी भी विकार = कार्यरुप होती नहीं है और नित्य होती है। इसलिए वह कभी भी अपने स्वरुप से भ्रष्ट नहीं होती है। महान आदि और प्रकृति का स्वरुप सांख्यो के द्वारा उस अनुसार से सांख्यकारिका में कहा गया है - व्यक्तकार्य हेतुमत्, अनित्य, अव्यापि, सक्रिय, अनेक, आश्रित (कारणाश्रित), लिंग-कारण में लीन होनेवाला, सावयव और परतंत्र होता है। अव्यक्तकारण इससे विपरित होता है।
(१) व्यक्त हेतुमत् है : अर्थात् महान आदि कारणवत् है। अर्थात् जिसका कोई कारण है, ऐसा महान आदि है। (कहने का मतलब यह है कि व्यक्त का आविर्भाव स्वतंत्र रुप में नहीं हुआ है। परन्तु अव्यक्त के कारण हुआ है। अव्यक्त, व्यक्त का कारण होने से व्यक्त हेतुमत् है।)
(२) व्यक्त अनित्य है : क्योंकि उत्पन्न होता है, जैसे कि, बुद्धि आदि अर्थात् बुद्धि आदि उत्पन्न होते है, अनित्य है। (कहने का मतलब यह है कि, जिसका कोई कारण हो, उसे कार्य कहा जाता है और कार्य उत्पन्न हुआ होने से उत्पन्न होने से पहले वह उसी स्वरुप में अस्तित्व रखता नहीं था, यह स्पष्ट होता है। वह एकबार विनाश भी हो सकता है-अपने स्वरुप को छोड भी सकता है। इस तरह से व्यक्त अनित्य भी है। यहाँ याद रखना कि सांख्यमत अनुसार किसी भी विद्यमान पदार्थ का आत्यन्तिक विनाश नहीं हो सकता है। विनाश यानी अपने मूलकारण में मिल जाना, व्यक्त की अनित्यता भी इसी अर्थ में समजना ।)
(३) व्यक्त अव्यापी है : अर्थात् व्यक्त प्रतिनियतदेशवर्ती है। सर्वगत नहीं है। (कहने का मतलब यह है कि, व्यक्त प्रतिनियत-मर्यादित देशकालवाला है। सभी जगह पे जानेवाला नहीं है। जो उत्पन्न, हुआ है। वह देशकाल की मर्यादावाला है, इस व्यक्त को अव्यापी कहा। परन्तु महानतत्त्व तो सर्वव्यापी है। इसलिए सभी व्यक्त तत्त्वो को अव्यापी कहने में दोष आयेगा। सांख्याचार्य श्री वंशीधर इस विषय में खुलासा करते है कि - महान इत्यादिक को ही व्यापक कहे गये है। वे अपने कारण में व्यापक नहीं हो सकते और इतने अंश से भी वे अव्यापी है । महदादेः स्वस्वकारणाव्यापकत्वादुपचरितव्यापकमित्यर्थः । __(४) व्यक्त सक्रिय है : अर्थात् अध्यवसाय आदि क्रियाओ को करता होने से वह सक्रिय है। अर्थात् संचरणक्रिया की तरह व्यापारवाला है। (कहने का मतलब यह है कि - जो अव्यापी हो, वह सीमाबद्ध
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