SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका उपादेय को हेय, कर्तव्य को अकर्तव्य, अकर्तव्य को कर्तव्य मानना उसे मिथ्यात्व कहा जाता हैं । जगत के पदार्थ जैसे है वैसे न मानने देनेवाला मिथ्यात्व हैं । मिथ्यात्व के कारण ही उल्टी मान्यता प्रवर्तित होती हैं । सुख आत्मा में होने पर भी उसे इन्द्रियों के विषय में मानना वह मिथ्यात्व का प्रभाव हैं । यह मिथ्यात्व पूर्वनिर्दिष्ट चार कारण में मुख्य हैं। क्योंकि, वह बुद्धि में विपर्यास खड़ा करता हैं । पाप से विराम पाने न दे उसे अविरति कहा जाता हैं । आत्मा से सर्वथा भिन्न पौद्गलिक पदार्थो में रममाण करनेवाली अविरति हैं । मिथ्यात्व आत्मभिन्न पदार्थो में सुखबुद्धि करवाता हैं और अविरति उसमें रममाण करती हैं । उसके योग से आत्मा कर्मो से बंधाता हैं । ३३ कोई व्यक्ति अपराध करे तब गुस्सा आये उसे क्रोध कहा जाता हैं । स्वोत्कर्ष के अहंकार को मान कहा जाता हैं। अन्य के प्रति कपट-प्रपंच का आचरण करना उसे माया कहा जाता है । पदार्थ की तृष्णा को लोभ कहा जाता हैं । क्रोधादि चार को कषाय कहा जाता हैं । कष अर्थात् संसार और आय अर्थात् लाभ, जिससे संसार (जन्ममरण की परंपरा ) प्राप्त हो उसे कषाय कहा जाता हैं । पौद्गलिक सुखो में रममाण बनने से कषाय उत्पन्न होते हैं। लाभ से लोभ बढता हैं। अधिक प्राप्ति में अहंकार होता हैं । अप्राप्ति में अन्य के प्रति क्रोध होता हैं और प्राप्ति के लिए प्रपंच (माया) होते हैं। मन वचन काया की प्रवृत्ति को योग कहा जाता हैं । मिथ्यात्व का तीव्र उदय वर्तित हो तब मोक्ष की साधना संभव नहीं बनती हैं। उस काल में कदाचित् साधना हो तो भी वह मोक्ष के लिए न हो, परन्तु संसार के लिए ही होती हैं । 1 मिथ्यात्व मंद पडे तब मोक्ष की साधना का प्रारंभ होता हैं और साधक " मिथ्यात्व" नाम के 'प्रथम गुणस्थानक' को प्राप्त करता है । मिथ्यात्व का नाश हो और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो तब साधक की मोक्ष साधना तीव्र बनती हैं और साधक “सम्यग्दर्शन" नाम के चतुर्थ गुणस्थानक को प्राप्त करता हैं । प्रथम गुणस्थानक से चतुर्थ गुणस्थानक की ओर आगे बढने वक्त "मिश्र" नामका तीसरा गुणस्थानक अल्प समय के लिए प्राप्त होता हैं । सम्यग्दर्शन से पतित होकर नीचे उतरने वक्त "सास्वादन" नाम के द्वितीय गुणस्थानक का स्पर्श साधक को अल्प समय के लिए होता हैं और तुरंत वह प्रथम गुणस्थानक पर पहुँचता हैं। याद रखना कि सात गुणस्थानक तक चढाव-उतार आ सकते हैं । चतुर्थगुणस्थानकवर्ती साधक को पाप के त्याग की बहोत भावना होने पर भी अविरति पापो से विराम नहीं पाने देती। जो करने की लेशमात्र इच्छा नहीं है, उसे दुःखी दिल से करना पडता है । चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से अविरति जब हल्की होती हैं, तब पाप की आंशिक निवृत्ति करने में साधक सफल बनता हैं, ऐसा साधक 'देशविरति' नाम के पाँचवे 'गुणस्थानक प्राप्त करता है । जब साधक मन-वचन-काया द्वारा करने-कराने - अनुमोदन देने से हिंसादि अठारह पापो का संपूर्ण त्याग करता है तब उसे " सर्वविरति" नाम का छठ्ठा गुणस्थानक प्राप्त होता है । चारित्र मोहनीय के विशिष्ट क्षयोपशम से यह अवस्था प्राप्त होती हैं । (उदय में आये हुए कर्म का क्षय नाश करना और आत्मा में सत्तारूप से रहे हुए कर्म को प्रयत्न - विशेष से उदय में आने न देना (उपशम), उसे क्षयोपशम कहा जाता हैं ।) मोक्ष साधना में जब अप्रमत्त भाव उजागर होता है, तब " अप्रमत्त" नामका सप्तम गुणस्थानक प्राप्त होता हैं, यहाँ साधक को निर्विकल्पक दशा की प्राप्ति होती हैं । सुख-दुःख, संसार-मोक्ष, मिट्टी सुवर्ण में तुल्यवृत्ति प्रकट होती हैं । साधक निराश्रवदशा को प्राप्त करता 1 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy