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________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका छ और सातवें गुणस्थानक में साधक का चढाव उतार चालू रहता है । जब आत्मा गुणो से समृद्ध बनता हैं तब उसमें अपूर्व सामर्थ्य प्रकट होता है और उसके योग से निर्बल हुए घाती कर्मों का मूल से नाश करने के लिए साधक के आत्मा में अपूर्व वीर्योल्लास प्रकट होता हैं । उस वीर्योल्लास के सामर्थ्य से साधक सातवें गुणस्थानक से आठवे गुणस्थानक पर पहुँचता है और सामर्थ्ययोग की प्राप्ति करता है । आठवें से बारहवें गुणस्थानक तक की साधना को " क्षपकश्रेणी" कहा जाता हैं । क्षपकश्रेणी की साधना में साधक ( पहले बताये हुए) चार प्रातीकर्मो का नाश करता हैं और तेरहवें गुणस्थानक पर अनंत चतुष्क का स्वामी बनता हैं । मिथ्यात्व अविरति कषायः इन तीनो का समूल नाश हो गया हैं। एक मात्र 'योग' बाकी हैं, यहाँ तेरहवें गुणस्थानक पर "योग" प्रवर्तित है । इसलिए उसे "सयोगी केवली' गुणस्थानक भी कहा जाता है । सर्वज्ञ - सर्वदर्शी बना हुआ आत्मा देह होने पर भी मुक्ति के अनंतसुख का अनुभव करता है, इसलिए इस अवस्था को जीवन्मुक्त अवस्था भी कही जाती हैं । ३४ जहाँ तक भवोपग्राही कर्म विद्यमान है, तब तक केवलज्ञानी भगवान देह सहित पृथ्वी के उपर विचरते रहते है । भव्य जीवो को प्रतिबोध देते है । राग-द्वेष को जीत लिया होने से "जिन" भी कहे जाते हैं । कालमर्यादा पूर्ण होने से चौदहवें गुणस्थानक पर शेष रहे हुए योग का निरोध करके भवोपग्राही कर्मो का भी नाश करते हैं । " अयोगी केवली" नाम के यह चौदहवें गुणस्थानक पर सर्वसंवरभाव, शैलेषीभाव और अबंधकता प्राप्त होती हैं । कर्म को आने के तमाम द्वारों को बंध करना उसे सर्वसंवर भाव कहा जाता हैं । आत्मा के असंख्य प्रदेशो को पर्वत की तरह स्थिर बना देना उसे शैलेषीभाव कहा जाता हैं और नये कोई कर्म का बंध न होना उसे अबंधकता कहा जाता । आत्मा के सर्वकर्मो का नाश होने से देह का भी नाश होता है और आत्मा देहरुप पिंजरे में से छूटकर अपनी जो स्वाभाविक ऊर्ध्वगति हैं, उसे प्राप्त करता है और सिद्धशिला के उपर सदा के लिए बसता हैं । यहाँ तो साधना की हल्की-सी रुप रेखा मात्र दी हैं । जिनागमों में विस्तार से इस साधनाक्रम का वर्णन किया हैं । चौदह गुणस्थानक की विकास यात्रा को समजाने के लिए श्री जैनाचार्योने गुणस्थानक क्रमारोह, कर्मग्रंथ, विशेषावश्यक भाष्य आदि अनेक ग्रंथो की रचना की हैं । प्रस्तुत ग्रंथ के रचयिता समर्थ शास्त्रकार शिरोमणि पू. आ. भ. श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराजा ने चौदह गुणस्थानक की समग्र साधना यात्रा को आठ दृष्टि के माध्यम से योगदृष्टिसमुच्य ग्रंथ में बताई हैं। उसमें अद्भुत शैली में मोक्षमार्ग उ योगमार्ग को बताया हैं । योग के यमादि आठ अंगो की क्रमशः किसी तरह से प्राप्ति होती है और चित्त के खेदादि आठ दोषो का नाश किस तरह से होता है, इत्यादि योगविषयक अनेक विषयों का अपूर्व शैली में आलेखन किया हैं । संक्षिप्त में, जैनदर्शन के मतानुसार मोक्ष में अनंत आनंद हैं । वहाँ जाने के बाद आत्मा का पुनः जन्म नहीं होता है। क्योंकि जन्म-मरण के बीजभूत कर्मो का सर्वथा नाश होता हैं । मोक्ष में सर्व मुक्त जीवो में समानता होती हैं । समानता और संपूर्ण स्वतंत्रता : ये दो मोक्ष के महान सुख हैं । असमानता- विषमता और परतंत्रता में से खडे हुए दुःखो का एक अंश भी मोक्ष में नहीं होता हैं । मोक्ष में प्रत्येक आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व होता हैं । कोई आत्मा का अपने से अन्य आत्मा में लय नहीं होता है । जैसे शरीर - इन्द्रियादि द्रव्यप्राणों के आधार पर जीव का संसारी अवस्था का नियत वर्षो का जीवन व्यतित होता हैं, वैसे ज्ञानादि भावप्राणों के आधार पर मोक्षावस्था का अनंतकाल तक जीवन व्यतीत होता हैं । तदुपरांत, मोक्षावस्था में तीर्थंकर के आत्मा और अन्य आत्माओं का सिद्धत्व एक समान होता है । प्रत्येक भव्यात्मा में जो अनंत शक्ति छिपकर रही हुई हैं, उसका प्रादुर्भाव मोक्षावस्था में प्रत्येक जीवो को एक समान होती हैं अर्थात् सभी मुक्तात्मा परमात्मभाव को प्राप्त करते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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