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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका
आत्मा का मूलभूत स्वभाव उर्ध्वगति हैं । कर्म और कर्मजन्य उपाधि के कारण आत्मा का यह स्वभाव दबा हुआ होता हैं । सर्वकर्म का नाश होने से (कर्म और कर्मजन्य उपाधि का नाश होने से) आत्मा की उर्ध्वगति होती हैं और सिद्धशिला के उपर स्थिर बनकर सादि-अनंतकाल तक आत्मा आत्मा में अवस्थान करने से अनंत सुख का अनुभव करता हैं। जैनदर्शन मोक्ष में आत्मा को अनंतसुख की प्राप्ति मानता हैं। मोक्ष में आत्मा को आयुष्य कर्म का नाश होने से अक्षयस्थिति प्राप्त होती हैं । वह अवस्था अनंतकाल तक रहनेवाली हैं । नामकर्म का नाश होने से अरुपीत्व प्राप्त होता है । गोत्रकर्म का नाश होने से अगुरुलघुत्व प्राप्त होता हैं। मोक्षावस्था में सर्व जीव समान होते हैं । कोई ऊंचा या कोई छोटा ऐसी असमानता नहीं होती है । वेदनीय कर्म का नाश होने से अव्याबाध उ व्याबाधारहित निरंतर सुखमय अवस्था प्राप्त होती है । ज्ञानावरणीय कर्म का नाश होने से अनंतज्ञान, दर्शनावरणीय कर्म का नाश होने से अनंतदर्शन, अंतराय कर्म का नाश होने से अनंतवीर्य और मोहनीय कर्म का नाश होने से अनंतचरित्र उ अनंत आनंद की प्राप्ति होती हैं । इस अनंत चतुष्क की संपत्ति द्वारा मुक्तात्मा अनंतकाल तक निरंतर अनंतसुख का अनुभव करते हैं ।
मोक्ष का सुख असांयोगिक हैं । इसलिए संयोग से उत्पन्न हुई एक भी विडंबणा का अंश भी उसमें नहीं है । सांयोगिक सुख चिंता, अजंप, अशांति आदि अनेक प्रकार की विडंबणाओं से घिरा हुआ है । असांयोगिक सुख ये विडंबणाओं से संपूर्ण रुप से मुक्त हैं । इसलिए ही संपूर्णतः दुःखरहित हैं । शाश्वत और दुःख के अंश से भी रहित अनंतसुख एकमात्र मोक्ष में है, ऐसी मान्यता जैनदर्शन की है अर्थात् एकांतिक और आत्यन्तिक सुख का अनुभव मुक्तात्मा को ही होता हैं ।
सर्वकर्म के क्षय से मोक्ष होता हैं और सर्वकर्म का क्षय करने की एक निश्चित साधना हैं । जैनदर्शन में साधना के चौदह पावदान बताये हैं । उसे "गुणस्थानक" की संज्ञा दी हैं । प्रथम पावदान (च्यड्डद्र) से कर्म की निर्जरा होने का प्रारंभ होता हैं (प्रत्येक पावदान पे कर्मनिर्जरा बढती जाती हैं।) और अंत में सर्वकर्म का क्षय होने से मोक्ष की प्राप्ति होती हैं। ___- पहले बताये आठ कर्मों में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय : ये चार घाती कर्म कहे जाते हैं। क्योंकि, आत्मा के मूलभूत जो ज्ञानादि गुणो हैं, उसका घात करनेवाले ये कर्म हैं । नाम, गोत्र, वेदनीय और आयुष्य : ये चार कर्म को अघातीकर्म कहे जाते हैं। उसे भवोपग्राही कर्म भी कहे जाते हैं।
चौदह पावदान की साधना और उसके उत्तरोत्तर विकास को समजने के लिए जैनदर्शन के कर्मग्रंथ आदि शास्त्रो का अवगाहन करना अति आवश्यक हैं । इस विश्व में जैन-दर्शन ने बताये हुए कर्म के सिद्धांत, आठों कर्मो के भेद-प्रभेद, कर्म-बंध के कारण, कर्मबंध के चार प्रकार, कर्म की विभिन्न अवस्थायें इत्यादि कर्मविषयक साहित्य अजोड हैं । वह अन्यत्र कही भी देखने को नहीं मिलेगा।
जैनदर्शन ने आत्मा जो कर्म बांधता हैं, वह कर्मबंध के चार कारण बताये हैं । (१) मिथ्यात्व, (२) अविरति, (३) कषाय और (४) योग । जब कि, तत्त्वार्थ सूत्रकार महर्षिने प्रमाद के साथ पाँच कर्मबन्ध के कारण बताये है ।
यहाँ याद रखे कि, आत्मा अनादि हैं । परिणामी नित्य हैं । आत्मा का संसार भी अनादि हैं । अनादि ऐसे कर्म के संयोग से आत्मा का संसार चलता हैं । कर्मबंध के कारण भी अनादि से आत्मा को चीपके हुए हैं । हेय को उपादेय,
जैनाः । (सर्वलक्षणसंग्रहः) मिथ्यादर्शनादीनां बन्धहेतूनां निरोधेऽभिनवकर्माभावान्निर्जराहेतुसंनिधानेनार्जितस्य कर्मणो निरसनादात्यन्तिक कर्ममोक्षणं मोक्षः । (सर्व.सं.पू. ८०) लब्धानन्तचतुष्कस्य लोकारूढस्य चात्मनः । क्षीणाष्टकर्मणो मुक्तिर्निव्यावृत्तिजिनोदिता ।। (सर्व.सं.पृ. ८८) तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छत्यालोकान्तात् (त.सू. १०/५)
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