________________
षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका
- माध्यमिको के मतानुसार शून्यता के दर्शन से मुक्ति होती हैं ।(12) निरंतर उत्पन्न हो रहे क्लेशादि दोषो से दूषित ज्ञान संतान के उच्छेद को मोक्ष कहा जाता हैं ।(13)
बौद्धदर्शन की चारो निकायो का मोक्ष के विषय में विशेष स्वरूप और उसकी साधना का उपक्रम प्रस्तुत ग्रंथ के बौद्ध दर्शन निरूपण के उत्तर में दिये हए विशेषार्थ में से जान लेने का परामर्श हैं । सारांश में, बौद्ध दर्शन अनसार निर्वाण क्लेशाभावरूप हैं । जब क्लेश का आवरण सर्वथा नष्ट होता हैं तब निर्वाण की अवस्था का जन्म होता हैं । निर्वाणमोक्ष को सुखरूप भी कही कही बताया है । परन्तु अधिकतर बौद्ध निकाय निर्वाण को अभावात्मक ही मानते हैं । विशेष में, वैभाषिक संसार और निर्वाण दोनों को सत्य मानते है । उनके मतानुसार निर्वाण के बाद भी चैतन्य की शुद्ध धारा अखंड रहती हैं । इसलिए निर्वाण वस्तुसत् पदार्थ हैं । सौत्रान्तिक के मतानुसार संसार सत्य है परन्तु निर्वाण असत्य है । उनके मतानुसार निर्वाण के समय चित्त की सर्व धाराओं का विलय होता है । शुद्ध-चैतन्य भी रहता नहीं हैं। इसलिए निर्वाण अवस्तृसत पदार्थ हैं । योगाचार संसार को असत्य और निर्वाण को सत्य मानता हैं । उनके मतानुसार निर्वाण के बाद शुद्धचित्त की धारा का अस्तित्व रहता होने से निर्वाण वस्तुसत् पदार्थ हैं । माध्यमिक के मतानुसार तो संसार और निर्वाण दोनों असत्य है । निर्वाण के बाद कुछ भी शेष नहीं रहता है । यह उनकी मान्यता है ।
नैयायिक शरीरादि इक्कीस दुःखो के आत्यंतिक ध्वंस को मोक्ष कहते हैं । (दुःख का प्रागभाव जिस आत्मा में जिस काल में न हो, उसी काल में उस आत्मा में शरीरादि दुःखो का नाश हो, उसे मोक्ष कहा जाता हैं अर्थात् जिस आत्मा में भविष्य में उत्पन्न होनेवाले दुःखो का प्रागभाव न हो, उस आत्मा के शरीरादि दुःखो का आत्यंतिक नाश उसे मोक्ष कहा जाता हैं ।(14) न्यायसार ग्रंथ में मोक्ष का स्वरूप समजाते हुए कहा है कि, शरीरादि के उच्छेद से, (शरीरादि इक्कीस दुःखो के उच्छेद से) आत्मा का आत्मा में जो अवस्थान होता है, उसे मोक्ष कहा जाता हैं ।(15) नैयायिक मोक्ष में आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करते हैं । परन्तु मुक्तात्मा में सख-आनंद का स्वीकार नहीं करते है । एकदेशी नैयायिक मुक्तात्मा में दुःखनिवृत्ति के साथ निरतिशय नित्यसुख का भी स्वीकार करते हैं ।(16) ___ सांख्यदर्शन के मतानुसार विवेकख्याति द्वारा पुरुष का प्रकृति से जो वियोग होता हैं, उसे मोक्ष कहा जाता है । अविवेक के कारण पुरुष और प्रकृति के संयोग से संसार उत्पन्न होता हैं । विवेकज्ञान प्राप्त होने से पुरुष - प्रकृति का वियोग होता है और पुरुष अपने स्वरूप में अवस्थान करता है, उसे मोक्ष कहा जाता हैं ।(17)
सांख्य दर्शन के मतानुसार मोक्षप्राप्ति का जो साधनक्रम है, वह उस दर्शननिरुपणोत्तर दीये हुए विशेषार्थ में से देखने का परामर्श हैं । जैनदर्शन के मतानुसार सर्व कर्म के क्षय को मोक्ष कहा जाता हैं । शरीर, पांच इन्द्रिय, आयुष्य, श्वासोश्वास
प्राण. पण्य-पाप-वर्ण-गंध-रस-स्पर्श. पनर्जन्मग्रहण. तीन वेद. कषायादि का संग, अज्ञान और असिद्धत्वादि के आत्यंतिक वियोग को मोक्ष कहते हैं ।(18) 12.मुक्तिस्तु शून्यतादृष्टः, तदर्थं शेषभावना । (प्र.वा. १/२५६) 13.उत्तराधरभावेन निरन्तरोत्पादक्लेशादिदोषदूषितबोधसंतितिविच्छेद
इति माध्यमिका: । 14. आत्यन्तिकैकविंशतिदु:खध्वंसः । स्वसमानाधिकरणदुःखप्रागभावासमानकालीनदुःखध्वंसः। 15. वपुर्विषयेन्द्रियबुद्धि सुखदुःखानामुच्छेदादात्मसंस्थानं मुक्तिः । (षड्. समु. - ३२ टीका) 16. नित्यसंवेद्यमानेन सुखेन विशिष्टात्यन्तिको दुःखनिवृत्तिः पुरषस्य मोक्षः (षड्.समु. ३२ टीका) दुःखसाधनशरीरनाशे नित्यनिरतिशय-सुखाभिव्यक्तिरिति तदेकदेशिनः (सर्वलक्षणसंग्रहः) 17. विवेकज्ञानात्पुरुषस्य य: प्रकृतेवियोगो भवति, स मोक्षः । प्रकृतेविवेकदर्शने तु प्रवृत्तेरूपरतायां प्रकृती पुरुषस्य स्वरूपेणावस्थानं मोक्षः । (षड्.समु. ४३ टीका) प्रकृतिपुरुषविवेकदर्शनात्तदविवेकनिवृत्तौ पुरुषस्य स्वरूपेणावस्थानमिति साङ्ख्ययोगिनः। (सर्वलक्षणसंग्रह) 18. कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः। (योगशतक) । देहादिः-शरीरपञ्चकेन्द्रियायुरादिबाह्य-प्राणपुण्यापुण्यवर्णगन्धरसस्पर्शपुनर्जन्मग्रहणवेदत्रयकषायादिसङ्गाज्ञानासिद्धत्वादेरात्यन्तिको वियोगो विरह: पुनर्मोक्षः। (षड्.समु. ५२ टीका) प्रलीननिखिलोपाधेः क्षेत्रज्ञस्य सततोर्ध्वगतिरिति
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org