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________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका आशरा लेने जैसा नहीं है । यहाँ दूसरी भी एक बात याद रखे कि, मध्यस्थता और सुतर्क के बीच मित्रता हैं तथा आग्रहदशा और कुतर्को के बीच दोस्ती है । इसलिए जहाँ मध्यस्थता हो वहाँ सुतर्को का जन्म होता है और सुतों से ही भ्रान्तियों का उन्मूलन होने से तत्त्व निर्णय तक पहुँचा जा सकता हैं । आग्रहदशा की विद्यमानता में कुतर्को का ही प्रादुर्भाव होता हैं । कुतर्क भ्रान्ति को बढाने से अतिरिक्त दूसरा कुछ भी नहीं करते हैं और भ्रान्तियाँ तत्त्व निर्णय से दूर-सुदूर रखती है । तत्त्वनिर्णय के बिना मार्ग स्पष्ट दिखाई नहीं देता है । मार्ग के सुस्पष्ट दर्शन के बिना प्रगति किस तरह से हो सकेगी ? इसलिए प्रत्येक मुमुक्षु को जगत के सर्व पदार्थो का (तत्त्वो का) यथार्थ निर्णय करना अति आवश्यक हैं । दर्शनो के भी दो विभाग पडते हैं । एक आस्तिक दर्शन और दूसरा नास्तिक दर्शन । श्री पाणिनि ऋषिने आस्तिक' शब्द की व्याख्या अपने "अष्टाध्यायी" व्याकरण ग्रंथ में की हैं कि, “अस्ति परलोक इति मतिर्यस्य स आस्तिक:"आत्मा का परलोक हैं - ऐसी जिनकी मति है, वह आस्तिक है । श्री जैनाचार्य कलिकाल सर्वज्ञ पू.आ.भ.श्री हेमचन्द्रसूरिजी म. ने भी "सिद्धहेमशब्दानुशासन" नामक व्याकरण-ग्रंथ में आस्तिक' शब्द की वैसी ही व्याख्या की हैं । जो आत्मा को मानते हैं, आत्मा का परलोक मानते हैं, पुण्य - पाप को मानते है और मोक्ष को मानते हैं, वे आस्तिक है । आत्मा - परलोक - पुण्य - पाप और मोक्ष को मानता नहीं है वह नास्तिक हैं । नास्तिक-आस्तिक की यह व्याख्या ही सर्व को ग्राह्य हैं । सभी आस्तिक दर्शनो का ध्येय मोक्ष हैं, संसार से मुक्ति हैं । सभी की अंतिम मंजिल मोक्ष हैं । प्रत्येक दर्शन ने अपने दृष्टिकोण से मोक्ष का स्वरूप समजाया हैं । एक बात तो स्पष्ट हैं कि, सभी जीवो की कामना एकमेव आत्यंतिक दुःखनिवृत्ति की और शाश्वतसुख की प्राप्ति की है । प्रत्येक दर्शन का, साधना का उपक्रम भिन्न-भिन्न है और साधना के परिपाक रुप से प्राप्त होते मोक्ष का स्वरूप भी भिन्न-भिन्न होता हैं । सभी दर्शन अपनी साधना प्रक्रिया को यथार्थ और परिपूर्ण बताते हैं । साधकों को तत्त्वनिर्णय करना है कि, कौन से दर्शन की साधना की प्रक्रिया यथार्थ और परिपूर्ण हैं । मोक्ष का स्वरूप : पहले बताये अनुसार प्रत्येक दर्शन की मोक्ष के स्वरूप के विषय में परिकल्पना भिन्न भिन्न हैं। बौद्ध दर्शनने चित्त की नि:क्लेश अवस्थारूप निरोध को ही मोक्ष कहा हैं । रागादि वासनाओं के सर्वथा नाश को मोक्ष कहा जाता हैं ।(9) बौद्धदर्शन की चार निकाय हैं । (१) वैभाषिक, (२) सौत्रान्तिक, (३) योगाचार, (४) माध्यमिक । - वैभाषिको के मतानुसार अविद्या, राग-द्वेष आदि के कारण इस जीवन-संतान की सत्ता हैं । अविद्या आदि का निरोध-नाश होने से निर्वाण का उदय होता हैं । - सौत्रान्तिको के मतानुसार रागादि क्लेशो की पुनः उत्पत्ति न होना वही मोक्ष हैं अर्थात् चित्त की नि:क्लेश अवस्थारूप निरोध ही मोक्ष हैं । - योगाचार मतानुयायी आलय विज्ञान की विशुद्धि को ही मोक्ष कहते हैं ।(10) (सर्ववासनाओं के आधार को आलयविज्ञान कहा जाता है ।) अर्थात् नैरात्म्यभावना के प्रकर्ष से प्राप्त परिशुद्ध चित्तसंतान ही मोक्ष कहा जाता हैं (11) 9. चित्तस्य नि:क्लेशावस्थारुपो निरोधो मुक्तिर्निगद्यते । (षड्. समु-७-टीका) 10. आलयविज्ञानविशुद्धरेवापवर्गः (षड्.समु-११-टीका) 11. भावनाप्रकर्षपरिलब्धपरिशुद्धचित्तसंतान इति योगाचाराः (सर्वलक्षणसंग्रहः) For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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