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________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका मैं कौन हुँ ? शरीर हुँ या आत्मा हुँ ? आत्मा जड है या चेतन है ? आत्मा कहाँ से आया है और कहाँ जाता है ? आत्मा से भिन्न पदार्थ हैं या नहीं ? दृश्यमान जगत का कारण कौन है ? उसका सञ्चा स्वरूप क्या है ? आत्मा का मोक्ष किस तरह से हो सकता है ? मोक्ष प्राप्ति के लिए सञ्चा मार्ग कौन-सा हैं ? कौनसे तत्त्व हेय है और कौन-से तत्त्व आदेय हैं ? मेरे लिए क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है ? ऐसे आत्मलक्षी प्रश्नो के उत्तर देना वह “दर्शन" का मुख्य ध्येय हैं। दर्शन को मान्यता-मत भी कहा जाता हैं और शास्त्र भी कहा जाता हैं । जिसके द्वारा आत्मा के उपर अनुशासन हो और जिससे आत्मा की रक्षा हो उसे शास्त्र(6) कहा जाता है । अनुशासनकर्ता शास्त्र विधिरूप और निषेधरूप होता हैं । शास्त्र हिंसादि का निषेध और अहिंसादि की विधि बतानेवाला हैं । । जैसे कष-छेद-ताप की परीक्षा में से उत्तीर्ण हुआ सुवर्ण विशुद्ध होने से मूल्यवान माना जाता है, वैसे कष, छेद और ताप की परीक्षा में से उत्तीर्ण हुआ विशुद्ध शास्त्र ही यथार्थ अनुशासक बन सकता है और वही अनेक मुमुक्षु को सन्मार्ग बता सकता है । कषादि त्रिकरहित शास्त्र स्वयं अप्रमाणभूत होने से अनुशासक की कोटी में नहीं आ सकता है । शास्त्रनिषिद्ध प्रवृत्ति से पीछे मुञ्चकर और विहित की प्रवृत्ति कराके आत्मा की रक्षा भी करता हैं । ___ यहाँ उल्लेखनीय है कि, चरणकरणानुयोग के ग्रंथ कर्तव्य-अकर्तव्य का प्रधानतया निरुपण करते हैं और द्रव्यानुयोग के ग्रंथ वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं । दोनों का ध्येय एक ही हैं कि, बोध निर्मल बनाकर आत्महित की सिद्धि करना। जब तक वस्तु के स्वरूप में भ्रान्ति होती है, तब तक(7) वेद्य संवेद्यपद की प्राप्ति भी हो सकती नहीं है और उसके बिना तत्त्वो का यथार्थ (संवेदनात्मक) निर्णय भी हो सकता नहीं है । तत्त्वनिर्णय के बिना सही दिशा में दृढता से प्रयाण नहीं हो सकता है । मन की डोलायमान स्थिति से मार्ग में भटकने से अतिरिक्त कुछ भी मिलता नहीं हैं । इसलिए मोक्षमार्ग में प्रगति सिद्ध करनी हो उस साधक को सर्व प्रथम तत्त्वनिर्णय करना आवश्यक हैं । तत्त्वनिर्णय से पहले तत्त्व विषयक जिज्ञासापूर्वक सत्शास्त्रो का श्रवण और उसके पदार्थो की धारणा करनी पडती है । उसके बाद उस पदार्थो के स्वरूप के बारे में उहापोह करके शंकाओं का समाधान प्राप्त करना आवश्यक हैं । यहाँ खास याद रखें कि,(8) कुतर्क, तत्त्वविषयक भ्रान्ति के पोषक हैं और सुतर्क भ्रान्ति के उन्मूलक हैं । जिसके द्वारा वस्तु के स्वरूप तक पहुँचा जाये और उपस्थित हुई व्यभिचार शंकाओं का निवर्तन हो उसे सुतर्क कहा जाता है और जिसके द्वारा वस्तु के स्वरूप से दूर जाये और शंकाओं के बढने से अश्रद्धा के बीज बोये जाये उसे कुतर्क कहा जाता है। कुतर्क आत्मा का महा शत्रु हैं । क्योंकि कुतर्क कभी भी श्रद्धा का जन्म नहीं होने देता हैं... सम्यग्बोध का नाशक हैं... उपशम गुण का घातक है... अभिमान करानेवाला हैं । सारांश में, कुतर्क आत्मा के लिए लाभदायी ऐसे श्रद्धा और बोध का नाश करके आत्मा के अधःपतन में निमित्त बननेवाले दोषो का प्रादुर्भाव करता हैं । इसलिए कुतर्क का 6. शासनात् त्राणशक्तेश्च, बुधैः शास्त्रं निरूच्यते । वचनं वीतरागस्य, तत्तु नान्यस्य कस्यचित् ।। शास्त्रे पुरस्कृते तस्माद् वीतराग: पुरस्कृतः। पुरस्कृते पुनस्तस्मिन्, नियमात् सर्वसिद्धयः ।। अदृष्टार्थेऽनुधावन्तः, शास्त्रदीपं विना जडा: । प्राप्नुवन्ति परं खेदं, प्रस्खलन्तः पदे पदे ।। २४/३-४-५।। (ज्ञानसार प्रक.) शास्त्रोक्ताचारकर्ता च, शास्त्रज्ञः शास्त्रदेशकः । शास्त्रैकदृङ्महायोगी, प्राप्नोति परमं पदम् ।।२४-८।। (ज्ञानसार प्रक.) 7. वेद्यं संवद्यते यस्मिन्नपायादिनिबन्धम् । तथाऽप्रवृत्तिबुद्ध्यापि स्त्र्याद्यागमविशुद्धया ।।७३ ।। अवेद्यसंवेद्यपदमान्ध्यं दुर्गतिपातकृत्। सत्सङ्गागमयोगेन जेयमेतन्महात्मभिः ।।८५।। (तार्किकशिरोमणि श्री हरिभद्रसूरिकृतयोगदृष्टिसमुच्चयः) 8. बोधरोग: शमाऽपायः, श्रद्धाभङ्गोऽभिमानकृत् । कुतर्कश्चेतसो व्यक्तं, भावशत्रुरनेकधा ।।८७।। कुतर्केऽभिनिवेशस्तन्न युक्तो मुक्तिवादिनाम् । युक्तः पुनः श्रुते शीले, समाधौ च महात्मनाम् ।।८८।। (योगदृष्टिसमुच्चय) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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