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________________ २४६ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ३८,३९, सांख्यदर्शन उपस्थ (मूत्रस्थान), वचन (उच्चारण स्थान), हाथ तथा पैर (पाँच) ये पाँच कर्मेन्द्रियां है। रुप, रस, गंध, शब्द, स्पर्श ये पाँच तन्मात्रा है और मन, यह सोलह का समुदाय है। ॥३८-३९।। व्याख्या-स्पर्शनं-त्वक, रसनं-जिह्वा, घ्राण नासिका, चक्षुः-लोचनं, श्रोत्रं च श्रवणं पञ्चमम, एतानि पञ्च बुद्धीन्द्रियाण्यत्र षोडशके गणे भवन्ति । स्वं स्वं विषयं बुध्यन्त इति कृत्वेन्द्रियाण्येव बुद्धीन्द्रियाणि प्रोच्यन्ते । तथाहि-स्पर्शनं स्पर्शविषयं बुध्यते, एवं रसनं रसं, घ्राणं गन्धं, चक्षू रूपं, श्रोत्रं च शब्दमिति । तथाशब्दः पञ्चेतिपदस्यानुकर्षणार्थः । पञ्चसंख्यानि कर्मकारणत्वात्कर्मेन्द्रियाणि च, कानि तानीत्याह - “पायूपस्थवचःपाणिपादाख्यानि" । तत्र पायुर्गुदं, उपस्थः-स्त्रीपुंश्चिह्नद्वयं, वचश्चेहोच्यतेऽनेनेति वचः, उरःकण्ठादिस्थानाष्टतया वचनमुञ्चारयति, पाणी पादौ च प्रसिद्धौ, एतैर्मलोत्सर्गसंभोगवचनादानचलनादीनि कर्माणि सिध्यन्तीति कर्मेन्द्रियाण्युच्यन्ते । तथाशब्दः समुञ्चये । एकादशं मनश्च, मनो हि बुद्धीन्द्रियमध्ये बुद्धीन्द्रियं भवति, कर्मेन्द्रियमध्ये कर्मेन्द्रियम्, तञ्च तत्त्वार्थमन्तरेणापि संकल्पवृत्ति । तद्यथा-कश्चिद्बटुः श्रृणोति “ग्रामान्तरे भोजनमस्ति" इति, तत्र तस्य संकल्पः स्यात् “तत्र यास्यामि तत्र चाहं किं गुडदधिरूपं भोजनं लप्स्य उतश्विद्दधि किं वा किमपि न" इत्येवंरूपं मन इति । तथाहंकारादन्यान्यपराणि रूपादितन्मात्राणि सूक्ष्मसंज्ञानि पञ्चोत्पद्यन्ते । तत्र रूपतन्मात्रं शुक्लकृष्णादिरूपविशेषः, रसतन्मात्रं तिक्तादिरसविशेषः, गन्धतन्मात्रं सुरभ्यादिगन्धविशेषः शब्दतन्मात्रं मधुरादिशब्दविशेषः, स्पर्शतन्मात्रं मृदुकठिनादिस्पर्शविशेषः इति षोडश । अयं षोडशको गण इत्यर्थः ।। ३८-३९ ।। टीकाका भावानुवाद : यहाँ सोलह के समुदाय में स्पर्शन = त्वचा, रसन = जिह्वा, घ्राण = नासिका, चक्षु = आंख, श्रोत्र = श्रवण (कान), ये पाँच बुद्धीन्द्रियाँ = ज्ञानेन्द्रिया है। अपने - अपने विषय का बोध करती होने से ही उस इन्द्रियो को बुद्धीन्द्रियाँ = ज्ञानेन्द्रियाँ कहा जाता है। जैसे कि श्लोक - ३८ के उत्तरार्ध में "तथा" शब्द है वह "बुद्धीन्द्रिया" पदके आगे रहे हुए “पञ्च" शब्द को कर्मेन्द्रिय पद के साथ जोडने के लिए है। पाँच संख्या क्रिया का कारण होने से कर्मेन्द्रिय कही जाती है। वह पांच कर्मेन्द्रियां कौन सी है? पायु, उपस्थ, वचः, पाणि और पाद, ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ है, उसमें पायु अर्थात् गुदा (मलविसर्जन का स्थान), उपस्थ अर्थात् स्त्री और पुरुष का चिह्न, वचः अर्थात् सीना, कंठ, मस्तक, जिह्वामूल, दांत, नासिका, ओष्ट (होठ) और तालु, वे आठ स्थान, इन आठ स्थानो से वचन उच्चारण किया जाता है। पाणि अर्थात् दो हाथ और पाद अर्थात् दो पाँव प्रसिद्ध है। यह पायु, उपस्थ, वचः, पाणि और पाद ये पाँच, से क्रमशः मलोत्सर्ग, मूत्रोत्सर्ग-संभोग, वचन, आदान, चलना इत्यादिक कार्य सिद्ध होते है। इसलिए कर्मेन्द्रियाँ कही जाती है। श्लोक - ३९ में "तथा" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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