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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ३८,३९, सांख्यदर्शन
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व्याख्या : ततः प्रकृतेर्बुद्धिः संजायत उत्पद्यते, सा च गवादौ पुरो दृश्यमाने गौरेवायं नाश्वः, स्थाणुरेवायं न पुरुष इति विषयनिश्चयाध्यवसायरूपा महानिति यका प्रोच्यते महदाख्यया याभिधीयते । बुद्धेश्च तस्या अष्टौ रूपाणिD-8 । धर्मज्ञानवैराग्यैश्चर्यरूपाणि चत्वारि सात्त्विकानि, अधर्मादीनि तु तत्प्रतिपक्षभूतानि चत्वारि तामसानीति । ततोऽपि बुद्धेरप्यहंकारः स्यादुत्पद्यते । स चाहं सुभगः, अहं दर्शनीय इत्याद्यभिमानरूपः । तस्मादहङ्कारात्षोडशको गण-9 उत्पद्यते । षोडशसंख्यामानमस्य षोडशको गणः-समुदायः ।।३७।।
टीकाका भावानुवाद :
प्रकृति में से बुद्धि उत्पन्न होती है। अर्थात् सामने रही हुई गाय में "यह गाय ही है, अश्व नहीं है।" तथा सामने रहे हुए स्थाणु में "यह स्थाणु ही है, पुरुष नहीं है।" ऐसे विषय के निश्चय के अध्यवसाय स्वरुप बुद्धि उत्पन्न होती है। उस बुद्धि के आठ रुप (गुण) है। (वह इस अनुसार से है-(१) सुश्रुषा : तत्त्व के सुनने की इच्छा । (२) श्रवण : तत्त्व को सुनना । (३) ग्रहण : शास्त्र के अर्थो को ग्रहण करना । (४) धारणा : ग्रहण किये हुए शास्त्रार्थ की अविस्मृति । (५) विज्ञान : ग्रहण किये हुए शब्दार्थ का संशय, विपर्यय या अस्पष्टबोध से भिन्नबोध । (६) ऊह : विज्ञातार्थ में (जाने हुए अर्थ में) तथाविध आलंबनो के बारे में विस्तार से पूर्वापर में (अनुसंधान की) विचारणा । (७) अपोह : विचारे हुए अर्थ के विषय में अनुपपत्ति का परिहार । (८) अभिनिवेश : विज्ञान, अपोह और ऊह से विशुद्ध अर्थ में "यह इस तरह ही है।" ऐसा निश्चय, (सामान्यज्ञान को ऊह कहा जाता है। विशेषज्ञान को अपोह कहा जाता है।)
धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य, ये चार सात्त्विकरुप है। उसके प्रतिपक्षभूत अधर्म, अज्ञान, विषयाभिलाषा और अनैश्वर्य, ये चार तामसिक रुप है।
उस बुद्धि में से भी अहंकार उत्पन्न होता है। वह अहंकार “मैं सुन्दर हूं" "मैं दर्शनीय हूं" इत्यादि अभिमानस्वरुप है। उस अहंकार से सोलह का समुदाय उत्पन्न होता है।
अथ षोडशसंख्यं गणं श्लोकद्वयेनाह- अब अंहकार से उत्पन्न सोलह का समुदाय दो गाथा के द्वारा कहते है, (मूल श्लो०) D-10स्पर्शनं रसनं घ्राणं चक्षुः श्रोत्रं च पञ्चमम् । पञ्च बुद्धीन्द्रियाण्यत्र तथा कर्मेन्द्रियाणि च ।।३८ ।।
पायूपस्थवचः पाणिपादाख्यानि मनस्तथा । अन्यानि पञ्च रूपादितन्मात्राणीति षोडश ।।३९ ।। श्लोकार्थ : स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र, ये पाँच बुद्धीन्द्रियाँ = ज्ञानेन्द्रियाँ है। पायु (मलस्थान)
(D-8-9-10) - तु० पा० प्र० प० ।
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