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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ३७, सांख्यदर्शन
ह्यात्मानमात्मानं प्रति पृथक् पृथक् प्रधानं वदन्ति, उत्तरे तु सांख्याः सर्वात्मस्वप्येकं नित्यं प्रधानमिति प्रपन्नाः ।।३६।।
टीकाका भावानुवाद :
इन सत्त्वादिगुणोकी समान - तुल्य अवस्था को ही प्रकृति कहा जाता है। “किल" पहले कही हुई बात का संकेत करता है । (अर्थात् पहले कहे अनुसार) सत्त्व, रजस् और तमस् गुणो का अनुक्रम से देवो में, मनुष्यो में और तिर्यंचो -- नारको में अधिकपन होने पर भी परस्पर प्रमाण की अपेक्षा से सत्त्वादि तीनो गुणो की समान अवस्था को प्रकृति कहा जाता है। उसे प्रधान और अव्यक्त शब्दो के द्वारा भी कहा जाता है। अर्थात् प्रकृति के प्रधान और अव्यक्त दूसरे नाम ही है।
उपरांत, वह प्रकृति अप्रच्युत(अविनाशि), अनुत्पन्न (उत्पत्तिरहित) और स्थिर एक कूटस्थ स्वभाववाली है । अर्थात् उसका स्वरुप कूटस्थ है । अर्थात् अविचलित स्वरुपवाली है। इसलिए ही वह प्रकृति अवयवरहित, साधारण, शब्दशून्य, स्पर्शरहित, रसरहित, रुपरहित, गंधरहित और अव्यय = अविनाशी कही जाती है।
मूलसांख्य प्रत्येक आत्मा को भिन्न-भिन्न प्रकृति होती है, ऐसा कहते है। परन्तु उसके बाद के सांख्य सब आत्माओ में एक नित्यप्रधान (प्रकृति) का स्वीकार करते है। (कहने का मतलब यह है कि मूल सांख्यो की मान्यता यह है कि सर्ग के प्रारंभ से ही प्रत्येक पुरुष को अपनी अलग अलग प्रकृत्ति थी, वह सर्ग के प्रारंभ में उस उस पुरुष के साथ संयोग प्राप्त करती है और वहां सृष्टि का सर्जन होता है। बाद में जब प्रलय होता है। तब वही प्रकृति साम्यावस्था में आ जाती है तथा फिर से जब सर्ग का प्रारंभ होता है, तब वही वही पुरुष को वही वही (प्रधान -) प्रकृति का संयोग होता है। जब पुरुष विवेकख्याति द्वारा आत्यंति की प्रकृति के संयोग का वियोग करता है, तब मोक्ष प्राप्त करता है। जब कि उत्तरके (पीछे के) सांख्यो का ऐसा मानना है कि सभी आत्माओ को एक स्वरुपवाली ही प्रकृति होती है।) ॥३६।।
प्रकृत्यात्मसंयोगात्सृष्टिर्जायते । अतः सृष्टिक्रममेवाह । (२'प्रकृति और आत्मा के संयोग से सृष्टि का सर्जन होता है। इसलिए अब सृष्टि के क्रम को ही कहते है(मूल श्लो०) ततःD-7 संजायते बुद्धिर्महानिति यकोच्यते ।
अहंकारस्ततोऽपि स्यात्तस्मात्षोडशको गणः ।।३७।। श्लोकार्थ : प्रकृति में से बुद्धि उत्पन्न होती है। उसको महान भी कहा जाता है। बुद्धि में से अहंकार उत्पन्न होता है और अहंकार में से सोलह गणो की उत्पत्ति होती है। ॥३७।। (२) सांख्यदर्शन का विशेषार्थ पीछे दर्शननिरुपणोत्तर देखना।
(D-7)- तु० पा० प्र० प० ।
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