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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - ३६, सांख्यदर्शन २४३ तथा परस्पर उपकारि ऐसे तीनो भी सत्त्वादि गुणो से सारा जगत व्याप्त है। (तो) भी उर्ध्वलोक में प्रायः देवो में सत्त्व की बहुलता होती है। अधोलोक में तिर्यंचो और नारको में तमोगुण की बहुलता है और मनुष्यो में रजोगुण की बहुलता होती है। जिससे मनुष्य प्रायः दुःखी होते है। जिससे सांख्यकारिका-५४ में कहा है कि "ब्रह्म से शुरु करके स्तम्ब = स्थावरपर्यत्न, यह समस्तसृष्टि उर्ध्वलोक में (उत्कृष्ट चैतन्यवाले देवो में) सत्त्वगुणप्रधान, मूल = अधोलोक में (अपकृष्ट चैतन्यवाले पशु-नारक आदि में), तमोप्रधान मध्यलोक में (मध्यम चैतन्यवाले मनुष्यो में) रजोप्रधान है। ॥१॥ ब्रह्म से स्तम्बपर्यन्त समस्त सृष्टि में ब्राह्म, प्राजापत्य, ऐन्द्र, पैत्र, गान्धर्व, यक्ष, राक्षस तथा पिशाच ये आठ प्रकार की दैविसृष्टि है। (सर्ग का वर्णन करते हुए सांख्यकारिका में कहा है कि... लिंगशरीर के आसपास भूत जो स्थूलशरीर की सृष्टि का सर्जन करते है, वह भूतादि सर्ग तीन प्रकार के है। (१) दैवसर्ग, (२) तिर्यग्योनिसर्ग, (३) मनुष्यसर्ग । उसमें दैवसर्ग उपर कहे अनुसार आठ प्रकार का है। तिर्यंचयोनिसर्ग पांच प्रकार का है। (१) पशु (ग्राम्य अथवा खुरवाले प्राणी, जैसे कि गाय इत्यादि..) (२) मृग वन में (जंगलमें) रहनेवाले अथवा बिना खुर के हिरन इत्यादि.. (३) पक्षी, (४) सरीसृप (पेट से चलनेवाले सांप इत्यादि..) और (५) स्थावर (वृक्ष इत्यादि). मनुष्यसर्ग एक ही प्रकार का है। सांख्याचार्य श्रीगौड की मान्यता है कि, दैवसर्ग, मनुष्यसर्ग, स्थावर उपरांत जंगम ऐसे दो प्रकार का तिर्यग्योनिसर्ग, ऐसे कुल मिला के चार सर्ग है। उन प्रत्येक के अभौतिक, लिंग, भाव और भूत, ऐसे चार प्रकार है। इसलिए कुल मिलाकर १६ सर्ग हुए।) ॥३५।। (मूल श्लो०) एतेषां या समावस्था सा प्रकृतिःD-6 किलोच्यते । प्रधानाऽव्यक्तशब्दाभ्यां वाच्या नित्यस्वरूपिका ।।३६ ।। श्लोकार्थ : सत्त्वादि तीन गुणो की साम्यावस्था को प्रकृति कहा जाता है। उसको प्रधान, अव्यक्त शब्दो के द्वारा भी बोला जाता है। उसका स्वरुप नित्य होने से नित्यस्वरुपिका भी कहा जाता है। व्याख्या-एतेषां सत्त्वादिगुणानां या समा-तुल्यप्रमाणा अवस्था-अवस्थानं, सा सत्त्वादीनां समावस्यैव प्रकृतिरुच्यते । किलेति पूर्ववार्तायाम् सत्त्वरजस्तमसां गुणानां क्वचिद्देवादौ कस्यचिदाधिक्येऽपि मिथः प्रमाणापेक्षया त्रयाणामपि समानावस्था प्रकृतिः कीर्त्यत इत्यर्थः । प्रधानाऽव्यक्तशब्दाभ्यां वाच्या, सा च प्रकृतिः प्रधानमव्यक्तं चोच्यते नामान्तराभ्याम् । नित्यम्अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावं कूटस्थं स्वरूपं यस्याः सा नित्यस्वरूपिकाऽविचलितस्वरूपेत्यर्थः । अत एव सानवयवा साधारण्यशब्दास्पर्शारसारूपागन्धाव्यया चोच्यते । मौलिक्यसांख्या (D-6) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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