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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - ३५, सांख्यदर्शन तद्रजः । यः कञ्चित्कदापि मोहं लभते, सोऽज्ञानमदालस्यभयदैन्याकर्मण्यतानास्तिकताविषादोन्मादस्वप्रादिस्थानं भवति, तत्तम इति । सत्त्वादिभिश्च परस्परोपकारिभिस्त्रिभिरपि गुणैः सर्वं जगद्व्याप्तं विद्यते परमूर्ध्वलोके प्रायो देवेषु सत्त्वस्य बहुलता, अधोलोके तिर्यक्षु नारकेषु च तमोबहुलता, नरेषु रजोबहुलता, यद्दुःखप्राया मनुष्या भवन्ति । यदुक्तम् (सांख्यकारिका ५४) “ऊर्ध्वं सत्त्वविशालस्तमोविशालश्च मूलतः सर्गः । मध्ये रजोविशाल ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तः । । १ । । ” अत्र ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्त इति ब्रह्मादिपिशाचान्तोऽष्टविधः सर्ग इति ।। ३५ ।। २४२ टीकाका भावानुवाद : श्लोक में “तावत्” शब्द प्रक्रमार्थक है । वह इस प्रकार से वे पच्चीस तत्त्वो में सत्त्व-सुखस्वरुप है। रजस् दुःखस्वरुप है और तमस् मोहस्वरुप है । इस अनुसार से प्रथम ये तीन गुणो को जान लेना । प्रश्न : उन तीन गुण को (जानने के) लिंग कौन से है ? उत्तर : प्रसाद से सत्त्वगुण, ताप से रजस्गुण तथा दैन्य से तमस्गुण का अनुमान होता है । रजस्गुण जानने का लिंग ताप=संताप है । और तमस्गुण को जानने का लिंग दैन्य = दीन वचन के कारणरुप दीनता है। (यहां प्रथम द्वन्द्व समास होकर, बाद में बहुव्रीहि समास होके "प्रसादतापदैन्यादिकार्यलिङ्गम्” पद बना हुआ है।) कहने का मतलब यह है कि, प्रसाद = प्रसन्नता, बुद्धि की पटुता, लाघव लघुता निराभिमानपन, अनिभष्वंग = अनासक्ति, अद्वेष = द्वेषरहितता, प्रीति आदि कार्य सत्त्वगुण के लिंग है। ताप = संताप, शोष शरीर - हृदय का सुख जाना, भेद = कूटनीति, चित्त की चंचलता, स्तम्भ = किसी की संपत्ति देखकर स्तब्ध हो जाना, उद्वेग = उबना इत्यादिक कार्य रजस् गुण के लिंग है। दैन्य = दीनता, मोह = मूढता, मरण, सादन = दूसरो को दुःख पहुंचाना, बीभत्स = भयानकता - डरावनापन, अज्ञान मूर्खता या विपरीत ज्ञान अगौरव = स्वाभिमानशून्यता आदि कार्य तमस् के लिंग है। ये (उपर सूचित किये गये) कार्यो के द्वारा सत्त्वादि गुण मालूम होते है । = जैसे कि, लोक में कोई व्यक्ति सुख को प्राप्त करता है। वह आर्जव = सरलता, मार्दव = निराभिमानता, सत्य, सौच = मन, वचन काया की पवित्रता, ही = लोकलज्जा, क्षमा, अनुकंपा, प्रसन्नतादि का स्थान होता है। यही सत्त्वप्रधान पुरुष की पहचान है । - Jain Education International = = जो कोई व्यक्ति दुःख को प्राप्त करता है, तब वह द्वेष, द्रोह, मत्सर = इर्ष्या (जलन), निंदा, वंचन = दूसरो को छलना, बंधन, तापादिका स्थान होता है, वही रजस्प्रधान पुरुष का परिचय है । जो कोई व्यक्ति जब भी मोह को प्राप्त करता है, तब वह अज्ञान, मद, आलस्य, भय, दैन्य, अकर्मण्यता, नास्तिकता, विषाद, उन्माद, भयंकर स्वप्न आना इत्यादिक का स्थान होता है, वही तमस् प्रधान व्यक्ति की पहचान है 1 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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