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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ३५, सांख्यदर्शन
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दिखते नहीं है, इसलिए उसे आध्यात्मिक दुःख कहे जाते है। और ये आध्यात्मिक दुःख आंतरिक उपाय से साध्य है। बाह्य उपाय से नहीं।
बाह्य उपाय से साध्य दुःख दो प्रकार के है। (१) आधिभौतिक और (२) आधिदैविक । मनुष्य, पशु, पक्षी, मृग, सरिसृप, ये त्रस और स्थावरजीवो के निमित्त से जो दुःख आता है, उसे आधिभौतिक कहा जाता है। यक्ष, राक्षस तथा भूतादि के वश के कारण जो दुःख आये वह आधिदैविक। ये तीनो दुःख रजोगुण के परिणाम है। बुद्धि में होनेवाले इन दुःखो के लिए तत्त्वो की जिज्ञासा होती है। (ईश्वर को जगत्कर्ता माननेवाले सेश्वरवादि सांख्यो की मान्यता है कि, ईश्वर जगत का सर्जन प्रकृति में क्षोभ करके करते है। यहा किसी को प्रश्न होगा कि, ईश्वर परमकृपालु है, तो जीवो को दुःख क्यों देते है? तब सेश्वरवादि सांख्यो ने उत्तर दिया है कि, जब तक जीवो को दुःख न आये, तब तक मोक्ष की जिज्ञासा नहीं होती है और दुःखत्रय के विघात की भी जिज्ञासा नहीं होती है, इसलिए ईश्वर उन को दुःख देते है।) तत्त्व पच्चीस है। ।३४||
अथ तत्त्वपञ्चविंशतिमेव विवक्षुरादौ सत्त्वादिगुणस्वरुपमाह।अब पच्चीस तत्त्वोको ही कहने की इच्छावाले ग्रंथकार श्री प्रारंभ में सत्त्वादि तीन गुण के स्वरुप को कहते है। (मूल श्लो०) सत्त्वं रजस्तमश्चेति ज्ञेयं तावद्गुणत्रयम्-3 ।
प्रसादतापदैन्यादिकार्यलिङ्ग क्रमेण तत् ।।३५ ।। __ श्लोकार्थ : सत्त्व, रजस् और तमस् ये तीन गुण है। प्रसाद, ताप तथा दीनता आदि कार्यो से उनका क्रमशः अनुमान होता है।
व्याख्या-तावच्छब्दः अवधारणे (प्रक्रमे) तञ्चैवं ज्ञातव्यं । तेषु पञ्चविंशतौ तत्त्वेषु सत्त्वं सुखलक्षणं, रजो दुःखलक्षणं, तमश्च मोहलक्षणमित्येवं प्रथमं तावद्गुणत्रयमेव ज्ञेयम् । तस्य गुणत्रयस्य कानि लिङ्गानीत्याह-“प्रसाद" इत्यादि । तत्सत्त्वादिगुणत्रयं क्रमेण प्रसादतापदैन्यादिकार्यलिङ्गम् । प्रसाद:प्रसन्नता, तापः-संतापः, दैन्यं-दीनवचनादिहेतुर्विषण्णता, द्वन्द्वे प्रसादतापदैन्यानि, तानि आदिः प्रकारो येषां कार्याणां तानि प्रसादतापदैन्यादीनि, प्रसादतापदैन्यादीनि कार्याणि लिङ्ग-गमकं-चिद्रं यस्य तत्प्रसादतापदैन्यादिकार्यलिङ्गम् । अयं भावः । प्रसादबुद्धिपाटवलाघवप्रसवानभिष्वङ्गाद्वेषप्रीत्यादयः कार्यं सत्त्वस्य लिङ्गम् । तापशोषभेदचलचित्ततास्तम्भोद्वेगाः कार्यं रजसो लिङ्गम् । दैन्यमोहमरणसादनबीभत्साज्ञानागौरवादीनि कार्यं तमसो लिङ्गम् । एभिः कार्यैः सत्त्वादीनि ज्ञायन्ते । तथाहिलोके0-5 यः कश्चित्सुखमुपलभते स आर्जवमार्दवसत्यशौचहीबुद्धिक्षमानुकम्पाप्रसादादिस्थानं भवति, तत्सत्त्वम् । यः कश्चिद्दुःखमुपलभते, स तदा द्वेषद्रोहमत्सरनिन्दावञ्चनबन्धनतापादिस्थानं भवति, (अ) 24॥ ४ प्र२र्नु पनि सi. 1. भा४२वृत्ति ५.२१ तथा सांस्यसं. ५.११ ०५२ वा मणे छे.
(D-3-4-5) - तु० पा० प्र० प० ।
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