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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ३२, नैयायिक दर्शन
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कृषि, वाणिज्य, पशुपालन और गृह आदि का निर्माण इत्यादि) (३) दंडनीति (=राजनीति) (४) आन्वीक्षिकी-न्यायविद्या, ये चार विद्या है। न्यायशास्त्र आन्वीक्षिकी विद्या माना जाता है। इसलिए उसका प्रस्थानभेद बताने के लिए हेत्वाभास अलग ग्रहण किया गया है। वृत्तिकार के मत में हेत्वाभास निग्रहस्थान नहीं है, परन्तु उसका प्रयोग ही निग्रहस्थान है। (इस विषय में विशेष उस उस ग्रंथो से जान लेना।)
ये बाईस निग्रहस्थानो उपरांत अनंत निग्रहस्थान होने पर भी यहाँ निग्रहस्थानो के बाईस मूलभेद बताये गये है। इसलिए इस अनुसार छल, जाति और निग्रहस्थानो के स्वरुप को जाननेवाला स्ववाक्य में दूसरे ने दिये हुए वह छलादि का त्याग करता हुआ, अच्छी तरह से पदार्थ की धारण करता हुआ, अपने साध्य की सिद्धि को प्राप्त करता है।
अत्रानुक्तमपि किंचिन्निगद्यते । अर्थोपलब्धिहेतु:C-91 प्रमाणम् । एकात्मसमवायिज्ञानान्तरवेद्यंC-92 ज्ञानं प्रमाणाद्भिन्नं फलं, पूर्वं प्रमाणमुत्तरं तु फलम्C-93 । स्मृतेरप्रामाण्यम्,C-94 परस्परविभक्ती सामान्यविशेषौ नित्यानित्यत्वे सदसदंशौ च, प्रमाणस्य विषयः पारमार्थिकः, तमश्छाये अद्रव्ये -95, आकाशगुण: C-9शब्दोऽपौ ललिकः, संकेतवशादेव शब्दादर्थप्रतीतिर्न पुनस्तत्प्रतिपादनसामर्थ्यात, धर्मधर्मिणोर्भेदः, सामान्यमनेकवृत्ति-97, आत्मविशेषगुणलक्षणंC-98 कर्म, वपुर्विषयेन्द्रियबुद्धिसुखदुःखानामुच्छेदादात्मसंस्थानं मुक्तिरिति-99 न्यायसारेC-100 पुनरेवं नित्यसंवेद्यमानेन सुखेन विशिष्टात्यन्तिकी दुःखनिवृत्तिः पुरुषस्य मोक्ष इति ।। एषां तर्कग्रन्था न्यायसूत्र-भाष्य-न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका-तात्पर्यपरिशुद्धि-न्यायालंकारवृत्तयः । क्रमेणाक्षपादवात्स्यायनोद्योतकरवाचस्पतिश्रीउदयनश्रीकण्ठाभयतिलको-पाध्यायविरचिताः ५४०००। भासर्वज्ञप्रणीते न्यायसारेऽष्टादश टीकाः । तासु मुख्या टीका न्यायभूषणाख्या न्यायकलिका जयन्तरचिता न्यायकुसुमाञ्जलितर्कश्च ।।३२।। टीकाका भावानुवाद :
यहाँ (श्लोक द्वारा) नहीं कहा हुआ भी कुछ विशेष (नैयायिकमत के विशेष तत्त्व कहा जाता है।) पदार्थ का बोध होने में जो कारण हो, उसको प्रमाण कहा जाता है। (उत्पन्न हुआ ज्ञान) एक का एक वही आत्मामें समवायसंबंध से तुरंत ही दूसरी क्षण में उत्पन्न हुए मानसप्रत्यक्षज्ञान के द्वारा ही मालूम होता है। (परन्तु उत्पन्न हुआ वह प्रथम समवर्तीज्ञान स्वयं अपने द्वारा मालूम नहीं होता है। इसलिए ज्ञान स्वयं प्रकाशित नहीं है।)
प्रमाण और फल भिन्न है। पहले प्रमाण और बाद में (प्रमाणका) फल होता है। स्मृति की प्रमाणता नहीं है। अर्थात् स्मृति प्रमाण नहीं है। सामान्य-विशेष, नित्यत्व-अनित्यत्व, सत्-असत् ये अंश परस्परभिन्न है। प्रमाण का विषय पारमार्थिक है। अंधकार और छाया द्रव्य नहीं है। आकाश का गुण शब्द पौद्गलिक
(C-91-92-93-94-95-96-97-98-99-100) - तु० पा० प्र० प० । Jalg Education International
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