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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - ३२, नैयायिक दर्शन कहने का मतलब यह है कि, वादी के पक्ष में कोई भी दोष न होने पर भी प्रतिवादी वादी को भूलावे में डालते हुए बिलकुल गलत ही कहता है कि "तुम कुछ खास प्रकार के निग्रहस्थान में आ गया है।" तो असत्य बोलनेवाला प्रतिवादी स्वयं ही "निरनुयोज्यानुयोग" नाम के निग्रहस्थान में आके पडता है। प्रतिवादी असत्य बोलता है, उसमें उसका यह हेतु होता है कि "मेरे कहने के उपर विश्वास रखकर वादी प्रतिज्ञा छोड देगा अथवा प्रतिज्ञा को सिद्ध करने के लिए दूसरा हेतु देगा । वादि का ये दोनो प्रकार के प्रयत्न निग्रहस्थान में परिणमित होगा। और मेरा विजय होगा।" यह दुष्ट हेतु सिद्ध नहीं हो, इसलिए शास्त्रकारने “निरनुयोज्यानुयोग” नाम का निग्रहस्थान बताया है। ( न्यायसूत्र : अनिग्रहस्थाने निग्रहस्थानाभियोगो निरनुयोज्यानुयोगः । ॥५२- २३॥ अर्थ स्पष्ट है ।) २३४ (२१) अपसिद्धांत निग्रहस्थान : सिद्धांत का स्वीकार करके नियम भंग करने से जो कथा का प्रसंग उपस्थित किया जाता है, वह अपसिद्धांत नाम का निग्रहस्थान है । जो पहले किसी सिद्धांत का स्वीकार करके कथा का प्रारंभ करे और उस कथा में सिद्ध करने की इच्छावाले अर्थ को सिद्ध करने के लिए या दूसरे के उपलंभ के लिए (स्वीकार कीये गये) सिद्धांत विरुद्ध कहते है, वह अपसिद्धांत के द्वारा निगृहीत होता है। जैसे कि, कोई (वादी) मीमांसको के सिद्धांत का स्वीकार करके “अग्निहोत्र स्वर्ग का साधन है।" इस अनुसार कहता है, उस वक्त प्रतिवादी सामने पूछता है कि, अग्निहोत्र क्रिया नाश होने पर वे क्रिया स्वर्ग को सिद्ध करनेवाली किस तरह से होती है? तब वादी कहता है कि, सेवित राजा फल को देता है, वैसे इस क्रिया से आराधित महेश्वर फल को देता है । यहाँ वादि को मीमांसक को अनभिप्रेत ईश्वर के स्वीकार से अपसिद्धांत नामका निग्रहस्थान होता है। (मीमांसको की मान्यता है कि, अग्निहोत्र क्रिया द्वारा अपूर्व पेदा होता है। वह अपूर्व स्वर्गादि का जनक है । याग इत्यादि से उत्पन्न होनेवाला, स्वर्ग इत्यादि को देनेवाला कोई गुणविशेष है । उस गुणविशेष को मीमांसकोने अपूर्व कहा है। ' प्रारब्धकर्म' इस तरह से वेदान्तिओ ने माना है। 'धर्म और अधर्म' यह अपूर्व ऐसा नैयायिको का मानना है । अदृष्ट वह अपूर्व, ऐसा वैशेषिको ने माना है । पुण्य और पाप को अपूर्व पौराणिकोने कहा ( न्यायसूत्र : सिद्धान्तमभ्युपेत्यानियमात् कथाप्रसङ्गो अपसिद्धान्तः ॥५-२२४॥ अर्थ स्पष्ट है ।) (२२) हेत्वाभास निग्रहस्थान : असिद्ध, विरुद्ध आदि हेत्वाभास, कि जिसके लक्षण आगे बताये है, वह हेत्वाभास निग्रहस्थान है । ( न्यायसूत्र : हेत्वाभासाश्च यथोक्ता ॥५-२-२५॥ अर्थ स्पष्ट है ।) हेत्वाभास निग्रहस्थान होने पर भी प्रमेय - प्रमाणादि की तरह अलग ग्रहण किया है। उसके कारण अलग-अलग ग्रंथो में भिन्न-भिन्न दिये गये है । भाष्यकार के मत में हेत्वाभास वाद में देशनीय होने से अलग (पृथक् ) ग्रहण किया है । न्यायवार्तिकानुसार (१) त्रयी (वेदप्रतिपाद्य धार्मिकक्रियाएं, जैसे कि अग्निहोत्र आदि ।) (२) वार्ता (खेती, For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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