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________________ २३६ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ३३, नैयायिक दर्शन नहीं है। संकेत के वश से शब्द के अर्थ की प्रतीति होती है। परन्तु उसके प्रतिपादन के सामर्थ्य से नहीं है। धर्म और धर्मीमें भेद है। सामान्य अनेक में वृत्ति है। कर्म आत्मा के विशेषगुण स्वरुप है। शरीर, विषय, इन्द्रिय, बुद्धि और सुख-दुःखो के उच्छेद से (आत्मा का) आत्मा में जो अवस्थानविशेष है, उसे मुक्ति कहा जाता है। ऐसा न्यायसारग्रंथ में कहा गया है। उपरांत नित्य संवेदित सुख के द्वारा विशिष्ट आत्यन्तिकी (अपुनर्भाव) दुःखनिवृत्ति पुरुष का मोक्ष है । (ऐसा भी कुछ नैयायिक मानते है।) श्री अक्षपादरचित न्यायसूत्र, श्री वात्स्यायनरचित भाष्य (न्यायसूत्र उपर का भाष्य), श्री उद्योतकररचित न्यायवार्तिक, श्री वाचस्पतिमिश्र रचित तात्पर्यटीका, श्रीउदयनाचार्यरचित तात्पर्यपरिशुद्धि और श्रीकंठाभयतिलक उपाध्यायरचित न्यायालंकारवृत्ति, ये नैयायिको के तर्कग्रंथ है । भासर्वज्ञप्रणीत न्यायसारग्रंथ के उपर अठारह टीका है। उसमें मुख्य टीका न्यायभूषण नाम की न्यायकलिका और जयन्तरचित न्यायकुसुमांजलितर्क है। ॥३२॥ अथ तन्मतमुपसंहरन्नुतरं च मतमुपक्षिपन्नाह । अब नैयायिक मत का उपसंहार करते हुए और उत्तर के सांख्यमत के प्रतिपादन की प्रतिज्ञा करते हुए कहते है कि__ (मूल श्लो०) नैयायिकमतस्यैष समासः कथितोऽञ्जसा । ___ सांख्याभिमतभावानामिदानीमयमुच्यते ।।३३।। श्लोकार्थ : इस अनुसार नैयायिकमत का संक्षेप से वास्तविक निरुपण किया गया है। अब सांख्यो के द्वारा माने गये पदार्थो का विवेचन किया जाता है। व्याख्या-एषोऽनन्तरोदितो नैयायिकमतस्य समासः संक्षेपः कथित उक्तोऽञ्जसा द्राग् सांख्याभिमतभावानां सांख्याः कापिलास्तेषामभिमता अभिष्टा भावा ये पञ्चविंशतितत्त्वादयः पदार्थास्तेषामयं समास इदानीमुच्यते ।। इति श्री तपोगणनभोंगणदिनमणिश्रीदेवसुन्दरसूरिपादपद्मोपजीविश्रीगुणरत्नसूरिविरचितायां तर्करहस्यदीपिकाभिधानायां षड्दर्शनसमुञ्चयवृत्तौ नैयायिकमतस्वरूपप्रकटनो नाम द्वितीयोऽधिकारः ।। यहाँ नजदिक में नैयायिकमत का संक्षेप कहा गया। अब कपिलऋषि के अनुयायि सांख्यो को इच्छित २५ तत्त्वो (पदार्थो) का संक्षेप कहा जाता है। ॥इस प्रकार से श्री तपागच्छरुप आकाशमण्डल में सूर्य जैसे तेजस्वी श्री देवसुन्दरसूरीश्वरजी महाराजा के चरणकमल के उपासक श्री गुणरत्नसूरि विरचित तर्करहस्यदीपिका नामकी षडदर्शन समुच्चय की टीका में नैयायिक दर्शन के स्वरुप को प्रकट करनेवाला दूसरा अधिकार (सानुवाद) पूर्ण होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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