SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 342
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ घड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ३२, नैयायिक दर्शन २२९ का कथन करनेवाले को अर्थान्तर नामका निग्रहस्थान होता है। जैसे कि, वादीने "अनित्यः शब्दः कृतकत्वात्।" इस अनुसार शब्द को अनित्य सिद्ध करने कृतकत्व हेतु दिया है, परन्तु प्रतिवादी प्रस्तुत अर्थ की उपेक्षा करके "हि" धातु को "तु" प्रत्यय लगकर कृदन्तपद बना हुआ है और पद नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात के भेद से चार प्रकार का है। इस तरह से वर्णन करके नामादि को कहता प्रस्तुत में अनुपयोगी अर्थान्तर के द्वारा निगृहीत होता है। कहने का मतलब यह है कि, उपरोक्त अनुमान में शब्द को कृतकत्वेन अनित्य सिद्ध करना, वह प्रकृत (मूल) प्रयोजन है। उसके बदले 'हेतु' शब्द की व्याकरण की दृष्टि से सिद्धि करनी, यह असंबद्ध है। इसलिए अर्थान्तर नाम का निग्रहस्थान आ गिरता है। न्यायसूत्र : प्रकृतादादप्रतिसम्बद्धार्थमर्थान्तरम् ॥५-२-७॥ अर्थ स्पष्ट है।) ___ (७) निरर्थक निग्रहस्थान : अभिधेय (अर्थ) रहित वर्णो के क्रमानुसार प्रयोगमात्र करनेवाले को निरर्थक नाम का निग्रहस्थान होता है। जैसे कि, "अनित्यः शब्दः कचटतपानां गजडदबत्वात्, घझढधभवत् ।" यह कथन सर्वथा अर्थ से शून्य होने से निग्रह के लिए होता है। अथवा साध्य को (सिद्ध करने में) उपयोगी नहीं होने से निग्रह के लिए होता है । (न्यायसूत्र : वर्णक्रमनिर्देशवन्निरर्थकम् ॥५-२-८॥ भावार्थ स्पष्ट है ।) (८) अविज्ञातार्थ निग्रहस्थान : जो साधनवाक्य और दूषण तीन बार बोलने पर भी सभा और प्रतिवादी द्वारा जानने के लिए संभव नहीं है, वह अविज्ञातार्थ नाम का निग्रहस्थान है। जैसे कि, वादी जब क्लिष्टशब्द का प्रयोग, असिद्धवाक्य का प्रयोग या अति धीरे स्वर से अस्पष्ट उच्चारण करता है, तब सभा और प्रतिवादी को बोध नहीं होता है। इसलिए वादी को अविज्ञातार्थ नाम का निग्रहस्थान आ गिरता है और ऐसा वाक्य (उपरोक्त कहे हुए वाक्य) बोलने में वादी अपने में रहा हुआ असामर्थ्य छिपाना चाहता है, इसलिए निगृहित होता है । (न्यायसूत्र : परिषत्प्रतिवादिभ्यां त्रिरभिहितमप्यविज्ञातमविज्ञातार्थम् ॥५-२-९॥ अर्थ स्पष्ट है।) प्रश्न : निरर्थक और अविज्ञातार्थ निग्रहस्थानो में भेद क्या है? उत्तर : "निरर्थक" में अर्थवाचक पद होता ही नहीं है, जब कि, 'अविज्ञातार्थ' में पद तो अर्थवाचक होता है परन्तु वादी सभा और प्रतिवादी समज न सके इसलिए अप्रसिद्ध शब्दोवाला, क्लिष्ट शब्दोवाला अथवा अस्पष्ट उच्चारण वाला वाक्य बोलता है।) (९) अपार्थक निग्रहस्थान : पूर्वापर को असंगत ऐसे पदो के समूह के प्रयोग से अप्रतिष्ठित वाक्यार्थ जिस में लगता हो, वह अपार्थक नाम का निग्रहस्थान है। जैसे कि, दस दाडिम, छ: मालपूआ, कुन्ड, बकरे का चमडा, मांस का पिण्ड इत्यादि कोई बोले तो इन सब में पूर्वापर का कोई संबंध न होने के कारण प्रतिष्ठित अर्थ निकलता न होने से अपार्थक नाम का निग्रहस्थान आ गिरता है । (न्यायसूत्र : Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy