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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ३२, नैयायिक दर्शन
शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पुनरुक्तं C-7' नाम निग्रहस्थानं भवति, अन्यत्रानुवादात् । शब्दपुनरुक्तं नाम, यत्र स एव शब्दः पुनरुच्चार्यते, यथाऽनित्यः शब्दोऽनित्यः शब्दः इति । अर्थपुनरुक्तं तु, यत्र सोऽर्थः प्रथममन्येन शब्देनोच्चार्यते पुनश्च पर्यायान्तरेणोच्यते, यथोऽनित्यः शब्दो विनाशी ध्वनिरिति । अनुवादे तु पौनरुक्त्यं न दोषो, यथा हेतूपदेशेन प्रतिज्ञायाः पुनर्वचनं निगमनमिति १३ । पर्षदा विदितस्य वादिना त्रिरभिहितस्यापि यदप्रत्युञ्चारणं, तदननुभाषणंC-80 नाम प्रतिवादिनो निग्रहस्थानं भवति । अप्रत्युचारयन् किमाश्रयं दूषणमभिदधीत १४ । पर्षदा विज्ञातस्यापि वादिवाक्यार्थस्य प्रतिवादिनो यदज्ञानं, तदज्ञानंC-81 नाम निग्रहस्थानं भवति, अविदितोत्तरविषयो हि किमुत्तरं ब्रूयात्, न चाननुभाषणमेवेदं ज्ञातेऽपि वस्तुन्यनुभाषणासामर्थ्यदर्शनात् १५ । परपक्षे गृहीतेऽप्यनुभाषितेऽपि तस्मिन्नुत्तराप्रतिपत्तिरप्रतिभानाम निग्रहस्थानं भवति १६ । कार्यव्यासङ्गात्कथाविच्छेदो विक्षेपो नाम निग्रहस्थानं भवति, सिसाधयिषितस्यार्थस्याशक्य-साधनतामवसाय कथां विच्छिनत्ति, इदं मे करणीयं परिहीयते पीनसेन कण्ठ उपरुद्ध इत्याद्यभिधाय कथां विच्छिन्दन् विक्षेपेण पराजीयते १७ ।।
टीकाका भावानुवाद : (५) हेत्वन्तर निग्रहस्थान : हेतु सामान्यरुप से दिया हो और बाद में उस हेतु का खंडन करने पर, उस हेतु में (वादी) विशेषण देना चाहता है, तो उसे हेत्वन्तर नाम का निग्रहस्थान होता है।
कहने का मतलब यह है कि, वादि किसी भी अर्थ को सिद्ध करने के लिए प्रतिज्ञा करता है और उस प्रतिज्ञात अर्थ को सिद्ध करने के लिए हेतु देता है। परन्तु जब प्रतिवादी हेतु का खंडन करता है, तब वादी उसमें कुछ विशेषण लगाता है। वह वादी का हेत्वन्तर नाम का निग्रहस्थान हुआ। क्योंकि वह मूल हेतु की अपूर्णता एक तरह से मान लेता है। जैसे कि, वादी द्वारा शब्द अनित्य है, क्योंकि बाह्य इन्द्रिय से ग्राह्य है। यह कहने पर भी इसके सामने प्रतिवादी कहता है कि, सामान्य भी बाह्यइन्द्रिय से ग्राह्य है। फिर भी वह तो नित्य है।
इसके उपर से वादी अपने (शब्द में अनित्यत्व को सिद्ध करता हुआ) मूल हेतु में एक विशेषण लगाता है कि, "जो सामान्यवान् हो और बाह्य इन्द्रिय से ग्राह्य भी हो, वह अनित्य है।" अर्थात् “जातिमत्त्वे सति ऐन्द्रियकत्वात्" यह नया हेतु देता है । इस अनुसार प्रतिज्ञा को सिद्ध करने के लिए सामान्यतत्त्व (जातिमत्त्व) रुप विशेषण हेतु में पीछे से लगाता है। इसलिए हेत्वन्तर द्वारा वादी निगृहीत होता है और वह हेत्वन्तर नाम का निग्रहस्थान है । ( न्यायसूत्र : अविशेषोक्ते हेतौ प्रतिषिद्धे विशेषमिच्छतो हेत्वन्तरम् ।॥१-२-६॥ अर्थ स्पष्ट है।)
(६) अर्थान्तर निग्रहस्थान : प्रकृत अर्थ की उपेक्षा करके अनौपयिक (असंबद्ध-अनुपयोगी) अर्थान्तर
(C-79-80-81) - तु० पा० प्र० प० ।
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