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________________ २३० षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ३२, नैयायिक दर्शन पौर्वापर्यायोगादप्रतिसम्बद्धार्थमपार्थकम् ॥५-२-१०॥ अर्थ स्पष्ट है ।) (१०) अप्राप्तकाल निग्रहस्थान : प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन, ये अवयवो के क्रम का उल्लंघन करके अवयव के विपर्यास से प्रयोजित अनुमानवाक्य हो तो उसे अप्राप्तकाल नाम का निग्रहस्थान होता है। यहाँ यह जानना कि, खुद को जो ज्ञान हुआ है वह दूसरे को हो, इसलिए पंचावयवयुक्त परार्थानुमान का प्रयोग होता है। परन्तु वह क्रमशः प्रयोजित हो, तो ही दूसरे के बोध का कारण बनता है और क्रम का उल्लंघन हो, तो अवयव के विपर्यास से अप्राप्तकाल नाम का निग्रहस्थान आ गिरता है । ( न्यायसूत्र : अवयवविपर्यासवचनमप्राप्तकालम् ॥५-२-१२॥ अर्थ स्पष्ट है।) इस उपरोक्त क्रम से भिन्न दूसरा क्रम भी न्यायसूत्र में बताया गया है। उसमें क्रम इस अनुसार है - वादी को अपनी प्रतिज्ञा को सिद्ध करने के लिए हेतु देना चाहिए और हेत्वाभास को दूर करना चाहिए । वह प्रथमपद । प्रतिवादी को वादी के हेतु का खंडन करना चाहिए। यह दूसरा पद । प्रतिवादी को अपना पक्ष सिद्ध करने के लिए हेतु देना चाहिए और हेत्वाभास का उद्धार करना चाहिए। यह तीसरा पद । उसके बाद जय और पराजय की व्यवस्था करना, यह चौथा पद।- इस क्रम के अनुसार विजय चाहनेवालो को कथा चलानी चाहिए । इस क्रम का भंग करे तो भी "अप्राप्तकाल" नाम का निग्रहस्थान आ गिरता है। (११) न्यून निग्रहस्थान : (स्व को हुआ ज्ञान दूसरे को हो, इसलिए परार्थानुमान के अंगरुप) पाँच अवयव से युक्त वाक्यप्रयोग करना चाहिए। फिर भी उन पाँच में से (एक) अवयव से हीन वाक्य का प्रयोग करनेवाले को न्यून नाम का निग्रहस्थान होता है। अर्थात् वाक्य के प्रयोग के अवसर पर पाँच अवयव में से किसी भी एक अवयव से हीन प्रयोग हो, तो न्यून नाम का निग्रहस्थान है। __ प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन, ये पाँच अवयव दूसरे को ज्ञान उत्पन्न करने में उपयोगी है। उसमें से एक अवयव से हीन वाक्यप्रयोग निग्रहस्थान बनता है। (न्यायसूत्र :हीनमन्यतमेनाप्यवयवेन न्यूनम् ॥५-२-१३॥ अर्थ स्पष्ट है।) यह निग्रहस्थान विजय चाहनेवालो की कथा में होता है। यह भूल भी विजयकथा में घबराहट के कारण होती है। (१२) अधिक निग्रहस्थान : एक ही उदाहरण या एक ही हेतु द्वारा प्रतिपादित अर्थ में दूसरे हेतु या दूसरे उदाहरण का उपन्यास करनेवाले को (रखनेवाले को) अधिक नामका निग्रहस्थान होता है। क्योंकि दूसरा हेतु और दूसरा उदाहरण देने का कोई प्रयोजन नहीं है। (न्यायसूत्र : हेतूदाहरणाधिकमधिकम् ।।५२-१३॥अर्थ स्पष्ट है।) यह प्रसंग जल्पकथा में बनता है और यह दूसरा हेतु और दूसरा उदाहरण देना वह भी घबराहट का चिह्न है।) (१३) पुनरुक्त निग्रहस्थान : शब्द और अर्थ का पुनः कथन करना, इसे पुनरुक्त नाम का निग्रहस्थान कहा जाता है। यह अनुवाद के सिवा जानना । अर्थात् अनुवाद में पुनरुक्तदोष नहीं लगता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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