________________
२२२
षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - ३१, नैयायिक दर्शन
३४॥” अर्थात् दृष्टान्त में साध्यसाधनभाव से बताये गये धर्म का हेतुपन होने से और साधर्म्य से और वैधर्म्य से भी हेतु साधक बनता होने से समानता नहीं है ।
कहने का मतलब यह है कि, जिस धर्म में साध्य और साधन में रही हुई व्याप्ति दिखाई देती हो, वही धर्म हेतु हो सकता है। वह व्याप्ति साधर्म्य के साथ होती है और वैधर्म्य के साथ भी होती है। साधर्म्य में जो व्याप्ति हो, वह अन्वयव्याप्ति और वैधर्म्य के साथ हो वह व्यतिरेकव्याप्ति । इस अनुसार साधर्म्य से भी हेतु बनता है । और वैसे भी हेतु बनता है । इसलिए असत्यहेतु और सत्यहेतु दोनो समान नहीं है ।
• नित्यसमा जाति का उत्तर : "प्रतिषेध्ये नित्यमनित्यभावादनित्यत्वोपपत्तेः प्रतिषेधाभावः ||५-१३६॥" अर्थात् प्रतिषेध करने योग्य शब्द में नित्य - अनित्यत्व मान लेने से शब्द में अनित्यत्व की सिद्धि होने से शब्द के अनित्यत्व का प्रतिषेध नहीं हो सकता है ।
कहने का भावार्थ यह है कि जब आप शब्द में नित्य - अनित्य का स्वीकार करते हो, तो शब्द अनित्य हो गया। क्या शब्द में नित्यत्व और अनित्यत्व ये दोनो विरुद्धधर्म रह सकेंगे ? अनित्यत्व यह अभावात्मक धर्म है। अभाव कोई दिन भी ( कभी भी) प्रतियोगि का आश्रय करके रहता नहीं है । घट का अभाव घट में रह ही नहीं सकता। इसलिए अभावरुप धर्म के आधार के रुप में शब्द के अस्तित्व को स्वीकार करने की जरा भी जरुरत नहीं है । अनित्यत्व अर्थात् निरोध अथवा प्रध्वंसाभाव । शब्द का प्रध्वंसाभाव मानने से शब्द अनित्य के रुप में सिद्ध होता है । इसलिए नित्यसमा जाति असत्य उत्तर सिद्ध होती है ।
• कार्यसमा जाति का उत्तर : "कार्यान्यत्वे प्रयत्नाहेतुत्वमनुपलब्धिकारणोपपत्तेः ॥५-१-३८॥" अर्थात् प्रयत्न के कार्य में भेद होने पर भी प्रकृत प्रयत्नानन्तरीयकत्व हेतु असिद्ध नहीं है, क्योंकि अनुपलब्धिका कारण न मिलता होने से । कहने का भाव यह है कि, प्रयत्न के कार्य अर्थात् फल में भेद होता है । फिर भी “शब्दः अनित्यः प्रयत्नानन्तरीयकत्वात् " इस जगह पे प्रयत्न से शब्द उत्पन्न होता है । उसमें कोई दोष नहीं है। शब्द यदि विद्यमान और किसी से भी ढका हुआ हो, तो उसके (शब्द के ) उपर रहे हुए आवरण का ज्ञान होना चाहिए। जैसे धरती में विद्यमान पानी का आवरण मिट्टी होती है, वैसे शब्द के उपर किसी भी प्रकार का आवरण नहीं है, इसलिए शब्द विद्यमान न मानकर उसकी अभिव्यक्ति मानना वह गलत है। शब्द को प्रयत्न के कारण नया ही उत्पन्न होता है, ऐसा मानना ही चाहिए । इसलिए कार्यसमा जाति का यहाँ अवकाश नहीं है। इसलिए शब्द की उत्पत्ति में दिया गया प्रयत्नानन्तरीयकत्व हेतु सत्य ही है । इसके संबंध में आगे भी बहोत कहा गया है।
इस अनुसार २४ जातियाँ बताई गई है। इसमें केवल उद्भावन करने में ही विलक्षणता है । इसलिए बहोत स्थान पे उपलक दृष्टि से पुनरुक्ति जैसा लगेगा । अथवा एक जाति में दूसरी जाति का अन्तर्भाव होता मालूम होगा। परन्तु दोष देने के प्रकार की सूक्ष्मता के उपर ध्यान दिया जायेगा तो भेद स्पष्ट दिखाई देगा। कुछ नैयायिको ने इसके सिवा दूसरी जातियों को भी माना है । क्योंकि दोष देने के प्रकार की मर्यादा बांधी नहीं जा सकती । इसलिए इस जाति के गण को आकृतिगण के रुप में माना है ।
I
तुम्हारे पक्ष में भी कोई-न-कोई दोष होना ही चाहिए। क्योंकि संसार में सर्वथा निर्दोष वस्तु कोई नहीं है। ऐसा कहकर वादि के हेतु में शंका लाना उसे शाठीसमा जाति कहा जाता है। इस अनुसार से दूसरी जातियों का उद्भावन (उद्भव) किया जा सकता है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org