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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ३१, नैयायिक दर्शन
• उपलब्धिसमा जाति का उत्तर : "कारणान्तरादपि तद्धर्मोपपत्तेरप्रतिषेधः ॥५-१-२८॥" अर्थात् दूसरे कारण से भी साध्यरुप धर्म की सिद्धि होती होने से पहले कहे हुए कारण का खंडन नहीं हो सकता है।
कहने का मतलब यह है कि, धूमरुपहेतु से अग्नि की सिद्धि होती है। आलोक (प्रकाश) से भी अग्नि की सिद्धि होती है। यहाँ दोनो हेतु अग्नि के साधक है। साध्य का साधन एक ही होना चाहिए, ऐसा कोई अवधारण हम नहीं करते है। जो जो हेतु में साध्य की व्याप्ति होगी, वह वह सब हेतु साधक हो सकेंगे। परन्तु आलोक हेतु देने से धूमरुप हेतु अग्नि की सिद्धि के लिए असत्य सिद्ध नहीं होता है। इसलिए उपलब्धिसमा जाति असत्य उत्तर सिद्ध होती है। • अनुपलब्धिसमा जाति का उत्तर : "अनुपलम्भात्मकत्वादनुपलब्धेरहेतुः ॥५-१-३०॥" अर्थात् अनुपलम्भस्वरुप अनुपलब्धि होने से प्रतिषेध करनेवाला हेतु असत्य सिद्ध होता है।
कहने का मतलब यह है कि - "अनुपलब्धि अभावरुप में ही होती है। भावरुप पदार्थ में अस्तित्व होता है और अभाव में नास्तित्व होता है। एक ही पदार्थ में अस्तित्व और नास्तित्व ऐसे विरुद्धधर्म संभवित है ही नहीं। इसलिए आवरण की अनुपलब्धि का विषय अभावरुप में ही है। वह केवल शब्द के आडंबर से भावरुप बन ही नहीं सकता। जिसका उपलंभ होता हो, उसे 'है' ऐसा कहा जायेगा, जैसे कि मनुष्य । मनुष्य का उपलंभ होता है इसलिए 'मनुष्य' है। जिसका उपलंभ न होता हो, उसे 'नहीं है। ऐसा कहा जायेगा । जैसे कि, 'मनुष्य का शृंग' (सिंग) मनुष्य के सिंग का उपलंभ नहीं होता है, इसलिए मनुष्य को सिंग नहीं है। ऐसा कहा जाता है। इसलिए अनुपलब्धि समा जाति असत्य उत्तररुप है।
दूसरी तरह से भी अनुपलब्धिसमा जाति असत्य उत्तर के रुप में सिद्ध होती है । "ज्ञानविकल्पानां च भावाभावसंवेदनादध्यात्मम् ॥५-१-३१॥" अर्थात् आत्मा में ज्ञान के विशेषो का भाव और अभाव मन से जाने जाते होने से।
कहने का मतलब यह है कि, यदि आत्मा में किसी भी विषय का संशयात्मक ज्ञान हो, तो उसे मन से समज सकता है। और कहता है कि "मुझको कुछ खास विषय में संशय है।" उसी तरह से यदि किसी विषय का निश्चयात्मक ज्ञान हो, तो भी आत्मा कहता है कि "मुझको कुछ खास विषय में निश्चय है" । इस अनुसार प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, स्मृति आदि ज्ञानोंको भी आत्मा अपने मन से समज सकता है। शब्द के उपर रहा आवरण में नहीं जान सकता । इसलिए शब्द के उपर आवरण नहीं है, ऐसा निश्चय भी आत्मा को है। इसलिए आवरण की अनुपलब्धि भी आत्मा मन से निश्चय कर सकता है। उसमें व्यर्थ तर्क का जरा भी स्थान नहीं है। • अनित्यसमा जाति का उत्तर : "साधादसिद्धेः प्रतिषेधासिद्धिः प्रतिषेध्यसाधाञ्च ॥५-१-१२॥" यदि साधर्म्य से कोई भी हेतु न होता हो, तो प्रतिषेधक हेतु की भी सिद्धि नहीं होगी। प्रतिषेध्य हेतु के साथ किसी को किसी भी अंश में साधर्म्य होने से । ___ कहने का मतलब यह है कि कोई भी साधर्म्य से सर्व में साध्यत्व का आपादान करने का हेतु भी असत्य ही सिद्ध होगा। क्योंकि उसके हेतु में भी प्रतिषेध्य में रहे हुए सत्त्व, प्रमेयत्वरुप धर्म है ही। तो वह साधर्म्य के कारण प्रतिवादि का हेत भी मिथ्या ही होता है। इसलिए किसी भी साधर्म्य से हेत की सिद्धि अथवा खंडन नहीं होता है। परन्तु जिस हेतु में व्याप्ति विशिष्ट साधर्म्य हो, उससे ही हेतु साधक अथवा बाधक हो सकता है। दूसरा कारण बताते है।
"दृष्टान्ते च साध्यसाधनभावेन प्रज्ञातस्य धर्मस्य हेतुत्वात् तस्य चोभयथा भावान्नाविशेषः ॥५-१
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