________________
षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ३१, नैयायिक दर्शन
कहने का भावार्थ यह है कि, तीन काल में हेतु की सिद्धि नहीं हो सकती है, यह कहना गलत है। क्योंकि साध्य की सिद्धि हेतु से ही सब कोई स्वीकार करते है। यदि भूख की शांति भोजन से न होती हो, तो भोजन करने में कोई भी मनष्य की प्रवत्ति ही नहीं होगी। इसलिए भख का मिटना यह साध्य है। और उसका हेतु भोजन, यह सब कोई मान सके ऐसी स्पष्ट बात है। • दूसरा कारण बताते है : "प्रतिषेधानुपपत्तेः प्रतिषेद्धव्याप्रतिषेधः ॥५-१-२०॥" प्रतिषेध की उत्पत्ति न होने से प्रतिषेध करने योग्य का प्रतिषेध भी नहीं हो सकता है।
कहने का मतलब यह है कि यदि आप हेतुफलभाव का खंडन करोंगे तो आप जिसका प्रतिषेध करते हो उसका प्रतिषेद्धव्य क्या है ? प्रतिषेध भी साधन होने से इससे भी साध्य की सिद्धि ही नहीं हो सकती। इसलिए हेतु से साध्य की सिद्धि माननी ही चाहिए। • अर्थापत्तिसमा जाति का उत्तर : "अनुक्तस्यार्थापत्तेः पक्षहानेरुपपत्तिरनुक्तत्वादनैकान्तिकत्वाच्चार्थापत्तेः ॥५-१-२२॥" अर्थात् अनुक्तमात्र की सिद्धि यदि अर्थापत्ति के आभास से हो सकती है, तो पक्षहानि की भी सिद्धि हो सकेगी। क्योंकि वह अनुक्त है। उपरांत असमर्थ अर्थापत्ति से अनैकान्तिकदोष भी आता है।
भावार्थ यह है कि, यदि अर्थापत्ति से अनुक्तमात्र की सिद्धि होती है, तो प्रतिपक्ष की हानि भी सिद्ध होनी चाहिए। क्योंकि खंडन करनेवाले ने अपने पक्ष की हानि भी नहीं कही है।
उपरांत असमर्थ अर्थापत्ति से नित्य का साधर्म्य बताकर वादि जैसे शब्द में नित्यत्व मानता है। वैसे उसी असमर्थ अर्थापत्ति से अनित्य के साथ साधर्म्य बताकर शब्द में अनित्यत्व को भी प्रतिवादि मान सकता है। एक ही पदार्थ में नित्यत्व और अनित्यत्व ऐसे विरुद्धधर्म किस तरह से मान सकेंगे। क्या घट काला है ? ऐसा कहा यानी दूसरी सब वस्तुएं काली नहीं है, ऐसा अर्थापत्ति से सिद्ध हो सकेगा? विशेष का विधान करने से बाकी रहे हुए का निषेध होता है। यह कैसे बन सकेगा? इसलिए असमर्थ अर्थापत्ति से खंडन करना वह असत्य उत्तर है। • अविशेषसमा जाति का उत्तर : "क्वचिद् धर्मानुपपत्तेः क्वचिच्चोपपत्तेः प्रतिषेधाभावः ॥५-१-२४॥"
सी जगह पे धर्म की उपपत्ति न होने से और किसी जगह पे उपपत्ति हो सकती होने से प्रतिषेध नहीं हो सकता है।
कहने का मतलब यह है कि, कोई एक साध्यरुप धर्म की व्याप्ति किसी खास धर्म में ही होने से, सर्वधर्म साध्य को सिद्ध नहीं कर सकते है। इसलिए कोई भी धर्म के कारण पदार्थो को अविशेष नहीं माना जा सकता। सत्त्व, प्रमेयत्व, अभिधेयत्व रुप धर्म समान होने पर भी उससे सभी पदार्थ नित्य या अनित्य नहीं हो सकते । क्योंकि, अनित्यत्वरुप साध्य की व्याप्ति सत्त्व, प्रमेयत्व आदि में नहीं है। इसलिए अविशेषसमा जाति नहीं बन सकती है। • उपपत्तिसमा जाति का उत्तर : "उपपत्तिकारणाभ्यनुज्ञानादप्रतिषेधः ॥५-१-२६॥" अर्थात् उपपत्ति का कारण स्वीकार करने से प्रतिषेध नहीं हो सकता है।
भावार्थ यह है कि, मेरे पक्ष में जब तुम प्रमाण मानते हो, तो फिर खंडन किसका हुआ? प्रमाण मानने से तो मेरे पक्ष की सिद्धि होती है। ___ यदि शब्द में अनित्यत्व तुम प्रमाण से स्वीकार करते हो, तो फिर अनित्यत्व का खंडन हो ही नहीं सकता। नित्यत्व और अनित्यत्व दोंनो विरुद्ध है। विरुद्ध दो स्वरुपवाला कोई भी पदार्थ होता ही नहीं है। इसलिए तुम्हारा पक्ष अपनेआप असत्य सिद्ध होता है। उपरांत नित्यत्व की व्याप्ति अस्पर्शत्व में न होने से अस्पर्शत्व नित्यत्व का साधक भी नहीं हो सकता है। इस प्रकार उपपत्तिसमा जाति असत्य उत्तर के रुप में सिद्ध होती है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org