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षड्दर्शन समुञ्चय भाग-१, श्लोक - ३१, नैयायिक दर्शन
साधक ही है। इसलिए बिना कारण मूल दृष्टांत को छोडकर दूसरा दृष्टांत लेने की आवश्यकता ही नहीं है । इस कारण से प्रतिदृष्टांतसमा जाति असत्य सिद्ध होती है। • अनुत्पत्तिसमा जाति का उत्तर : "तदाभावादुत्पन्नस्य कारणोपपत्तेर्न कारणप्रतिषेधः ॥५-१-१३॥" अर्थात् उत्पन्न हुआ पदार्थ घटादिरुप में होने से कारण की सिद्धि होती होने से कारण का प्रतिषेध नहीं हो सकता
है।
___ कहने का भावार्थ यह है कि, शब्द उत्पन्न होने के बाद ही शब्द कहा जाता है। पक्ष भी तब ही कहा जाता है । उसी अनुसार हेतु और दृष्टांत में भी समजना । उत्पन्न होने के बाद उसमें कारण की उत्पत्ति हो सकती है। इसलिए पक्ष, हेतु और दृष्टांत को उत्पत्ति से पहले असिद्ध बताकर हेतु को असिद्ध बताना गलत खंडन है। यदि उत्पत्ति से पहले शब्द न होने के कारण उसमें अनित्यत्व सिद्ध न हो सकता हो, तो उसमें नित्यत्व भी कहाँ से रह सकेगा? क्योंकि उभय पक्षमें शब्द का अभाव समान होने से उत्पत्ति पहले नित्यत्व धर्म भी नहीं है। तो आपका इष्ट नित्यत्व भी शब्द में हो ही नहीं सकता। इस अनुसार अनुत्पत्तिसमा जाति का निवारण हो सकता है। • संशयसमा जाति का उत्तर : "साधर्म्यात्संशये न संशयो वैधादुभयथा वा संशयेऽत्यन्तसंशयप्रसङ्गो नित्यत्वान्नाभ्युपगमाच्च सामान्यस्याप्रतिषेधः ॥५-१-१५॥" अर्थात् समानधर्म के दर्शन से संशय होता होने पर भी वैधर्म्यदर्शन से संशय नहीं होता है और (उभयथा) साधारणधर्म और विशेषधर्म दोनो के दर्शन से यदि संशय माना जाये, तो संशय को नित्य मानना पडेगा और समानधर्म को नित्यसंशयजनक के रुप में माना जाता न होने से संशयसमा जाति से हेतु का खंडन नहीं हो सकता है। ___ भावार्थ यह है कि - समानधर्म के दर्शन से संशय होता है। परन्तु जब विशेषधर्म का दर्शन होता है, तब संशय मिट जाता है। जैसे कि, स्थाणु और पुरुष में ऊंचाई यह समान है और उसका ही जब दर्शन होता है, तब संशय होता है परंतु जब हाथ-पैर इत्यादिक विशेषधर्म का दर्शन होता है। तब यह स्थाणु है या पुरुष है, ऐसा संशय नहीं रहता है।
उसी अनुसार शब्द में कार्यत्वरुप विशेषधर्म देखने से शब्द नित्य होगा या अनित्य ? ऐसा संशय नहीं रहेगा। यदि विशेषधर्म का दर्शन भी संशय का कारण हो तो संशय की कभी भी निवृत्ति हो ही नहीं सकेगी। इसलिए विशेषधर्म का दर्शन होने के बाद सामान्यधर्म का दर्शन संशय का कारण नहीं रहता है । इस हेतु से संशयसमा जाति असत्य उत्तर है। • प्रकरणसमा जाति का उत्तर : "प्रतिपक्षात् प्रकरणसिद्धेः प्रतिषेधानुपपत्तिः प्रतिक्षेपोपपत्तेः ॥५-११७॥" अर्थात् विपरीत साध्य के हेतु से पक्ष और प्रतिपक्षरुप प्रकरण चालू हो तो भी उसके द्वारा पूर्वोक्त हेतु में व्याप्ति आदि का बल होने से उससे सिद्धि हो सकेगी। इसलिए व्याप्तिविशिष्ट हेतु का प्रतिषेध नहीं हो सकता ।
कहने का मतलब यह है कि "शब्दः अनित्यः कार्यत्वात्" शब्द अनित्य है। क्योंकि वह कार्य है। यहाँ कार्यत्वरुप हेतु का विरोधी श्रावणत्वरुप हेतु है। श्रावणत्व हेतु से शब्द में नित्यत्वरुप विपरीत साध्य प्रतिवादि सिद्ध करना चाहता है। यहाँ कार्यत्वरुप हेतु में व्याप्ति होने से वह सबल बनता है और श्रावणत्व हेतु में व्याप्ति हो तो भी उसको जानने के लिए अन्वयी उदाहरण नहीं मिल सकता है। इसलिए वह निर्बल है। इसलिए प्रतिपक्षरुप कार्यत्व हेतु से ही साध्य की सिद्धि होती होने से प्रकरणसमा जाति नहीं बन सकती। • हेतुसमा जाति का उत्तर : "न हेतुतः साध्यसिद्धेस्त्रकाल्यासिद्धिः ॥५-१-१९॥" हेतु से ही साध्य की सिद्धि होती होने से त्रैकाल्य की असिद्धि नहीं है।
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