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________________ २१८ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - ३१, नैयायिक दर्शन उपसंहार सिद्ध होता होने से, बाद में वैधर्म्य रहने पर भी खंडन नहीं हो सकता है। कहने का मतलब यह है कि, जो साधर्म्य प्रसिद्ध हो अर्थात् जिसमें व्याप्ति है, वह साधर्म्य से उपसंहार हो सकता है। जो साधर्म्य व्याप्तिरहित हो, उससे साध्यकी सिद्धि नहीं होती है। और ऐसे साधर्म्य से उपसंहार भी नहीं हो सकता है। इसलिए व्याप्ति निरपेक्ष साधर्म्य से जो खंडन किया गया है, वह असत्य उत्तर है । "शब्दोऽनित्यः कृतकत्वात्, घटवत्" इस जगह पे घट में और शब्द में जो अनित्यत्व और कृतकत्व है, उसमें व्याप्ति है । और इसलिए साध्य की सिद्धि हो सकती है । घट में अनित्यत्व और रुपकी व्याप्ति नहीं है, इसलिए रुप की निवृत्ति से अनित्यत्व की निवृत्ति नहीं हो सकती है। इस कारण से उत्कर्षसमा आदि जातियाँ असत्य सिद्ध होती है। अब दूसरा कारण बताते है। “साध्यातिदेशाश्च दृष्टान्तोपपत्तेः ॥५-१-६॥" और (साध्यातिदेशात्) कुछ खास पदार्थ में साध्य बताने से दृष्टांत की सिद्धि हो सकती होने से । कहने का मतलब यह है कि, जो अर्थ में साध्य प्रसिद्धता से बताया जा सकता हो, वही दृष्टांत हो सकता है। दृष्टांत में जितने धर्म हो, वे सब पक्ष में आने ही चाहिए, ऐसा नियम नहीं बांध सकते। थोडा भी वैधर्म्य के लिए दृष्टांत ही नहीं बन सकेगा। "यथा गौस्तथा गवयः " इस जगह पे "गौ" और "गवय" में साधर्म्य होने पर भी वैधर्म्य तो रहता ही है। परन्तु प्रसिद्ध साधर्म्य के कारण ही, जैसे गवय का उपमान गौ बन सकता है। वैसे पक्ष का प्रसिद्धसाधर्म्य हो वह सपक्ष हो ही सकता है। इसलिए वर्ण्यसमा और साध्यसमा जातियाँ भी असत् उत्तर है। • प्राप्तिसमा जाति और अप्राप्तिसमा जाति का उत्तर : “घटादिनिष्पत्तिदर्शनात् पीडने चाभिचारादप्रतिषेधः ॥५-१-८॥” अर्थात् घट आदि की उत्पत्ति हेतु से होती होने से और अभिचार से (शत्रुका वध, वशीकरण अथवा मांत्रिकप्रयोग से) शत्रु का पीडन होता होने से, हेतु का खंडन नहीं हो सकता है । I कहने का मतलब यह है कि, घटआदि कार्य उत्पन्न करने में हेतु का घट के उपादान कारण के साथ अवश्य संबंध होता है यह सब कोई जानता है । इसलिए हेतु साध्य के अधिकरण में रहकर भी साध्य को सिद्ध कर सकता है। अभिचारीकर्म में शत्रु जिस देश में हो, उस देशमें हेतु न हो, तो भी शत्रु को पीडा (दुःख) उत्पन्न कर सकता है, इसलिए हेतु साध्य के अधिकरण में न हो, तो भी साध्य को सिद्ध कर सकता है। इसलिए प्राप्तिसमा और अप्राप्तिसमा जूठे उत्तर है । • प्रसंगसमा जाति का उत्तर : "प्रदीपादानप्रसङ्गनिवृत्तिवत् तद्विनिवृत्तिः ॥५-१-१०॥” अर्थात् अन्यप्रदीप (दीपक) लेने का प्रसंग जैसे नहीं होता है, वैसे प्रतिदृष्टांत की भी निवृत्ति होती है । कहने का मतलब यह है कि, दृष्टांत सिद्ध ही होने से उसको सिद्ध करने के लिए हेतु की आवश्यकता नहीं होती है । इसलिए दूसरा दृष्टान्त लेने की जरुरत नहीं होती है। जैसे अंधेरे में पडी हुई वस्तु को देखने के लिए दीपक की जरुरत पड़ती है लेकिन दीपक को देखने में अन्य दीपक की जरुरत पड़ती नहीं है। वैसे साध्य को सिद्ध करने के लिए दिये गये दृष्टांत को सिद्ध करने के लिए दूसरे दृष्टांत की जरुरत नहीं है । इस अनुसार प्रसंगसमा जाति की निवृत्ति हो जाती है । • प्रतिदृष्टांतसमा जाति का उत्तर : "प्रतिदृष्टान्तहेतुत्वे च नाहेतुर्दृष्टांतः ॥५- १ - १२॥" और दूसरे दृष्टांत को साधक के रुप में माना जाये, तो भी पहला दृष्टांत असाधक नहीं है । कहने का मतलब यह है कि, एक दृष्टांत से साध्य की सिद्धि होती है, तो दूसरा दृष्टांत क्यों ले ? उसमें कोई हेतु नहीं होता है । प्रतिदृष्टांत साधक होने पर भी मूल दृष्टांत को जब तक हेतु से खंडित न किया जाये तब तक वह भी T Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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