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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ३१, नैयायिक दर्शन है? इस प्रकार का संशय होता है। शंका : संशयसमा जाति में भी संशय किया जाता है। और उसके द्वारा खंडन होता है। तो संशयसमा और कार्यसमा दोनो जाति में भिन्नता क्या रही ? और इसलिए दोनो को पृथक् क्यों कही ? समाधान : संशय को उत्पन्न करने के प्रकार की भिन्नता के कारण संशयसमा जाति से कार्यसमा जाति भिन्न है। वह इस तरह से-संशयसमा जाति में उदाहरण का साधर्म्य और वैधर्म्य बताकर संशय पैदा किया जाता है। जब कार्यसमा जाति में प्रयत्न के कार्य (फल) अनेक होने के कारण संशय होता है। इसलिए संशय का उद्भावन (उद्भव) करने के प्रकार की भिन्नता के कारण वे दोनो जाति भिन्न है। इस प्रकार चौबीस जाति का वर्णन पूरा होता है। इसलिए इस प्रकार से उद्भावन के प्रकार और विषय विकल्पो में भिन्नता होने से जातियाँ अनंत है। परंतु असंकीर्ण (एक दूसरे में अंतर्भूत न होनेवाले) उदाहरणो की विवक्षा से ये २४ जाति के भेद बताये गये है। सब जातिओ का (५५)प्रतिसमाधान (कि जो इस ग्रंथ में नहीं है, परन्तु न्यायसूत्रानुसार नीचे टिप्पणीमें दिया गया है। वह प्रतिसमाधान) पक्षधर्मत्वादि अनुमान के सद्हेतुओ के द्वारा अनुमान की परीक्षा करने द्वारा किया है और इस अनुसार अविप्लुतस्वरुपवाले हेतु में प्राय: नैयायिकों (प्रवृत्ति करते) नहीं है। कृतकत्व और प्रयत्नानन्तरीयकत्व का दृढसंबंध होने से (अविनाभावरुप संबंध होने से) शब्द की अनुपलब्धि भी आवरणादिकृत नहीं है। परन्तु अनित्यत्वकृत ही है। (५५) उपरोक्त जातिओ का प्रतिसमाधान न्यायसूत्रानुसार यहाँ दिया गया है । (१-२) साधर्म्यसमा और वैधर्म्यसमा जाति असत्य उत्तर है, वह बताते है। "गोत्वाद् गोसिद्धिवत् तत्सिद्धिः ॥५-१-३॥" अर्थात् गोत्व से जैसे गाय की सिद्धि होती है, वैसे उसकी सिद्धि होती है। कहने का मतलब यह है कि, गोत्व में गाय की व्याप्ति है। इसलिए गोत्व का जहाँ समवाय संबंध हो, उसे गाय कहा जाता है। शृंग, पुच्छ आदि का संबंध गाय में है, परन्तु गाय की व्याप्ति शृंग या पुच्छ में नहीं है। क्योंकि, गाय के सिवा दूसरे पशुओ में भी शृंग और पुच्छ आदि का संबंध होता है। इसलिए ही जो धर्म में साध्य की व्याप्ति हो, वही धर्म से साध्य की सिद्धि हो सकती है। __ "शब्दोऽनित्यः कृतकत्वात्" इस उदाहरण में भी अनित्यत्वरुप साध्य की व्याप्ति कृतकत्व में है, क्योंकि नित्यपदार्थ में कृतकत्व (कार्यत्व) होता ही नहीं है। अनित्यधर्म की व्याप्ति अमूर्तत्व में नहीं होती है। क्योंकि, अमूर्तत्व नित्य में भी होता है। जैसे कि, आत्मा, आकाश, काल आदि नित्यपदार्थो में अमूर्तत्व है। अनित्य में भी होता है। जैसे कि बुद्धि, इच्छा आदि अनित्यपदार्थो में अमूर्तत्व है। इसलिए अमूर्तत्व धर्म का अनित्य के साथ व्याप्ति रहित साधर्म्य है। इस कारण से अमूर्तत्वरुप धर्म नित्यत्वरुप साध्य का हेतु नहीं हो सकता है। इसके उपर से सिद्ध होता है कि, व्याप्तिरहित साधर्म्य या वैधर्म्य साध्य का साधक नहीं बन सकता है। इसलिए ऐसे साधर्म्य और वैधर्म्य में व्याप्ति न होना, यही जाति होने का कारण है। • उत्कर्षसमा, अपकर्षसमा, वर्ण्यसमा, अवर्ण्यसमा, विकल्पसमा और साध्यसमा, यह छ: जातियाँ असत्य उत्तररुप होने के कारण बताते है। "किंचित्साधर्म्यात् उपसंहारसिद्धेवैधादप्रतिषेधः ॥५-१-५॥" अर्थात् कोई भी अल्प ही साधर्म्य से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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