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________________ २१६ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ३१, नैयायिक दर्शन (नाश) से शब्द नित्य ही रहेगा। (अर्थात् शब्द की अनित्यता नाश होने से, शब्द की नित्यता आयेगी इसलिए शब्द नित्य है, ऐसा सिद्ध होगा ।) ___ अब यदि शब्द की नित्यता नित्य है, ऐसा मानोंगे तो भी अनित्यता एक धर्म है और धर्म नित्य है, तथा धर्म निराश्रय नहीं होता है। इसलिए कहीं रहना चाहिए और उस धर्म का आश्रय शब्द है। इसलिए नित्यधर्म का आश्रय शब्द भी नित्य ही होगा और यदि शब्द को अनित्य मानोंगे तो शब्द के धर्म की नित्यता का अयोग होगा। अर्थात् शब्द का धर्म अनित्य होने की आपत्ति आयेगी परन्तु वह योग्य नहीं है क्योंकि धर्म नित्य होता है। इस अनुसार दोनो तरह से भी शब्द नित्य है। (२३) (अ)अनित्यसमा जाति : सभी पदार्थो में अनित्यत्व सिद्ध करके जो खंडन करना इसे अनित्यसमा जाति कहा जाता है। जैसे कि अनित्यत्वेन शब्द का घट के साथ साधर्म्य है। इसलिए शब्द अनित्य है, ऐसा यदि स्वीकार किया जाये तो घट के साथ सभी पदार्थो का कोई न कोई साधर्म्य भी है ही। इसलिए सर्वपदार्थ अनित्य होंगे। अब यदि आप ऐसा कहेंगे कि, घट के साथ सभी पदार्थो का कोई न कोई भी साधर्म्य होने पर भी सर्वपदार्थ अनित्य नहीं है। तो शब्द भी अनित्य नहीं होगा। शंका : अविशेषसमा जाति भी इसी प्रकार से है, तो दोनो को पृथक् (अलग) उपादान क्यों किया है। समाधान : दोनो समान नहीं है। अविशेषसमा जाति में सामान्य धर्म को आगे करके शब्द का अनित्यत्व सिद्ध किया गया है। जब कि, अनित्यसमा जाति में अनित्यत्वमात्र को आगे करके शब्द को अनित्य सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है। इसलिए उद्भावन की विशेषता के कारण दोनो का पृथक् उपादान किया गया है। (२४) (ब)कार्यसमा जाति : प्रयत्न के कार्यो का अनेक प्रकार से उपन्यास करने के द्वारा (रखकर) जो खंडन करना, उसे कार्यसमा जाति कहा जाता है। जैसे कि, वादि द्वारा "अनित्यः शब्दः प्रयत्नानन्तरीयकत्वात् " इस अनुसार कहने पर भी जातिवादि (प्रतिवादि) कहते है कि, प्रयत्न दो प्रकार का होता है । (१) कुछ असत् ही प्रयत्न के द्वारा उत्पन्न किया जाता है। जैसे कि घट । (अर्थात् मिट्टी में घट असत् (अविद्यमान) है और कुम्हार के प्रयत्न द्वारा उत्पन्न किया जाता है।) (२) कुछ सत् ही होने पर भी आवरण होता है , उस आवरण को प्रयत्न द्वारा दूर करने से प्रकट किया जाता है। जैसे मिट्टी में गडे हुए मूल और कीलिकादि (अर्थात् मिट्टी में मूल और कीलिकादि सत् विद्यमान है और पुरुष के प्रयत्न द्वारा आवरण दूर करके प्रकट किया जाता है।) अथवा गर्भ में रहा हुआ पुत्र । इस तरह से प्रयत्न के कार्य अनेक होने से यह शब्द प्रयत्न द्वारा प्रकट किया जाता है या उत्पन्न किया जाता (अ) सर्वभावानित्यत्वोपपादनेन प्रत्यवस्थानमनित्यसमाजातिर्भवति ।। न्यायक० - पृ-२१ ।। (व) प्रयत्नकार्यनानात्वोपन्यासेन प्रत्यवस्था कार्यसमा जातिर्भवति ।। न्याय क० पृ० २१ ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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