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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ३१, नैयायिक दर्शन २०७ (दूसरे प्रकार से ग्रंथकारश्री बताते है कि) 'यदि' = यदि आपके द्वारा नित्य आकाश के वैधर्म्यरुप कृतकत्व धर्म से शब्द में अनित्यत्व इच्छित है। तर्हि = तो घटादि अनित्य के वैधर्म्यरुप अमूर्तत्व हेतु से शब्द में नित्यत्व की प्राप्ति होती है। क्योंकि दोनो में विशेषता का अभाव है। अर्थात् दोनो में वैधर्म्यरुप संबंध सामान्य है। (३) उत्कर्षसमा जाति : उत्कर्ष के द्वारा खंडन करना, उसे उत्कर्षसमा जाति कहा जाता है। उस प्रयोग में ही (अर्थात् उपर दीये गये "अनित्यः शब्दः कृतकत्वात्, घटवत्" इस प्रयोग में ही) दृष्टांत के साधर्म्य को कुछ साध्यमि (पक्ष) में बताता (प्रतिवादि) उत्कर्षसमा जाति का प्रयोग करता है। जैसे कि, यदि घट की तरह कृतकत्व हेतु से शब्द अनित्य है, तो घट की तरह शब्द भी मूर्त होगा। (क्योंकि घट मूर्त है।) और यदि शब्द मूर्त नहीं है, तो घट की तरह अनित्य भी न होगा। (यहाँ घट दृष्टांत के साधर्म्य को साध्यधर्मिपक्ष (शब्द में) बताता हुआ प्रतिवादि शब्द में दूसरे धर्म का प्रयोग करके, उसके साध्य अनित्यत्व का खंडन करता है, उसे उत्कर्षसमा जाति कहा जाता है। ___ (४) अपकर्षसमा जाति : अपकर्ष के द्वारा खंडन करना, उसे अपकर्षसमा जाति कहा जाता है। "अनित्यः शब्दः कृतकत्वात्, घटवत्" इस स्थान पे यदि कोई कहे कि शब्द में श्रावणत्व अर्थात् श्रोत्रग्राह्यत्व है। परन्तु घट में श्रावणत्व नहीं है। इसलिए शब्द का साधर्म्य घट के साथ है, तो घट भी श्रोत्रग्राह्य होना चाहिए। परन्तु घट में श्रावणत्वरुप धर्म नहीं है। इसलिए शब्द में भी (श्रावणत्व धर्म) नहीं होना चाहिए और इसलिए घट की तरह शब्द अनित्य भी नहीं होना चाहिए। ऐसे प्रकार के खंडन को "अपकर्षसमा" जाति कहा जाता है। इस स्थान पे पक्षरुप जो शब्द है, उसका धर्म जो श्रावणत्व है, उसका अभाव दृष्टांतरुप घट में बताया गया है। यहाँ दृष्टांत की कमी आगे करके साध्य का प्रतिषेध (खंडन) किया गया है। इसलिए अपकर्षसमा जाति कहा जाता है। (५-६) वर्ण्य-अवर्ण्यसमा जाति : वर्ण्य और अवर्ण्य के द्वारा खंडन करना, उसे अनुक्रम से वर्ण्यसमा और अवर्ण्यसमा जाति कहा जाता है। प्रसिद्ध हो उसे वर्ण्य कहा जाता है और उससे विपरीत (अर्थात् प्रसिद्ध न हो उसे) अवर्ण्य कहा जाता है। वे दोनो साध्य और दृष्टांत के धर्म का विपर्यास करते हुए (५२ वर्ष्यावर्ण्यसमा जाति का प्रयोग करते (५२) न्यायसूत्र में वर्ण्यसमा - अवर्ण्यसमा जाति का लक्षण : जिसमें साध्य संदिग्ध है, उसे वर्ण्य कहा जाता है। पक्षमें साध्य संदिग्ध होने से पक्ष वर्ण्य कहा जाता है। जैसे कि "घटोऽनित्यः कृतकत्वात्, शब्दवत्" यदि घट अनित्य न हो तो, शब्द भी अनित्य नहीं होना चाहिए । इस जगह पे घट में अनित्यत्व होने का संदेह ही नहीं है। फिर भी उसको जातिवादि ने पक्ष के रुपमें बताया है। इसलिए वर्ण्यसमा जाति मानी जाती है। उपर के ही उदाहरण में शब्द में अनित्यत्व संदिग्ध होने पर भी उसको दृष्टांत के रुप में बताया गया है। इसलिए उसको वर्ण्यसमा जाति कहा जाता है। दृष्टांत अवर्ण्य असाधनीय होता है। जब उपर के उदाहरण में शब्द में अनित्यत्व संदिग्ध होने से वर्ण्य बन जाता है। शब्द 'अवर्ण्य' न होने पर भी उसको अवर्ण्य (दृष्टांत) बनाया, इसलिए अवर्ण्यसमा जाति बनती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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