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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ३१, नैयायिक दर्शन
यदि अनित्य घट के साधर्म्य से, कृतकत्व हेतु द्वारा (अर्थात् घट कृतक है, वैसे शब्द भी कृतक है, ऐसे कृतकत्व हेतु द्वारा) शब्द अनित्य इच्छित है, तो नित्य आकाश के साधर्म्य से अमूर्तत्व हेतु द्वारा (अर्थात् आकाश अमूर्त है, वैसे शब्द भी अमूर्त है। ऐसे अमूर्तत्व हेतु द्वारा ) शब्द में नित्यत्व प्राप्त होता है। क्योंकि शब्द और आकाश दोनो अमूर्त होने से, उस साधर्म्य द्वारा शब्द भी आकाश की तरह नित्य होगा।
इस प्रकार, अमूर्त का साधर्म्य से शब्द में साध्याभाव = नित्यत्व सिद्ध हुआ। अर्थात् साध्य का प्रतिषेध (खंडन) हुआ। इस प्रकार से वहाँ साधर्म्य के द्वारा साध्य का खंडन होने से साधर्म्यसमा जाति है।
वैधपेण प्रत्यवस्थानं वैधर्म्यसमा जातिः, अनित्यः शब्दः कृतकत्वात्, घटवदित्यत्रैव प्रयोगे वैधयेणोक्ते वैधर्मेणैव प्रत्यवस्थानम् । नित्यः शब्दोऽमूर्तत्वात्, अनित्यं हि मूर्तं दृष्टं, यथा घटादीनि । यदि हि नित्याकाशवैधात्कृतकत्वादनित्य इष्यते, तर्हि घटाद्यनित्यवैधादमूर्तत्वान्नित्यत्वं प्राप्नोति, विशेषाभावादिति २ । "उत्कर्षापकर्षाभ्यां प्रत्यवस्थानमुत्कर्षापकर्षसमे जाती भवतः । तत्रैव प्रयोगे दृष्टान्तसाधर्म्य किंचित्साध्यधर्मिण्यापादयन्नुत्कर्षसमां जातिं प्रयुङ्क्ते । यदि घटवत्कृतत्वादनित्यः शब्दस्तर्हि घटवदेव मूर्तोऽपि भवेत् । न चेत् मूर्तो घटवदनित्योऽपि मा भूदिति शब्दे धर्मान्तरोत्कर्षमापादयति ३ । अपकर्षस्तु घटः कृतकः सन्नश्रावणो दृष्टः, एवं शब्दोऽपि भवतु । नो चेत् घटवदनित्योऽपि मा भूदिति शब्दे श्रावणत्वमपकर्षति ४ । वर्ष्यावया॑भ्यां प्रत्यवस्थानं वावर्ण्यसमे जाती भवतः । ख्यापनीयो वर्ण्यस्तद्विपरीतोऽवर्ण्यस्तावेतौ वावो साध्यदृष्टान्तधर्मो विपर्यस्यन्वावर्ण्यसमे जाती प्रयुक्ते । यथाविधः शब्दधर्मः कृतकत्वादिर्न तादृक च घटधर्मो, यादृक् च घटधर्मो न तादृक् शब्दधर्म इति । साध्यधर्मो दृष्टान्तधर्मश्च हि तुल्यौ कर्तव्यौ । अत्र तु विपर्यासः । यतो यादृग् घटधर्मः कृतकत्वादिर्न तादृक शब्दधर्मः । घटस्य ह्यन्यादृशं कुम्भकारादिजन्यं कृतकत्वं, शब्दस्य हि ताल्चोष्ठादिव्यापारजमिति ५-६ । टीकाका भावानुवाद : (२) वैधर्म्यसमा जाति : वैधर्म्य द्वारा (साध्यका) प्रतिषेध (खंडन) करना, उसे वैधर्म्यसमा जाति कहा जाता है। जैसे कि शब्दोऽनित्यः कृतकत्वात्, घटवत् - इस अनुसार प्रयोग करने पर भी वैधर्म्य के प्रयोग से (साध्य का) खंडन किया जाता है कि “नित्यः शब्दोऽमूर्तत्वात्" (यहाँ अमूर्तस्वरुप धर्म अनित्य घट का वैधर्म्य है।) क्योंकि जो अनित्य है, वह मूर्त ही होता है। जैसे कि, घट । इस प्रकार से अनित्य घट के वैधर्म्य अमूर्तत्वरुप धर्म से शब्द नित्य सिद्ध होता है । इस प्रकार वैधर्म्य से साध्य का अभाव सिद्ध हुआ। इसलिये वह वैधर्म्यसमा जाति है।
अ उत्कर्षापकर्षाभ्यां प्रत्यवस्थानमुत्कर्षापकर्षसमे जाति भवतः ।। न्यायक.पृ११ ।। व. वयविभ्यिां प्रत्यवस्थानं वावयाँ
जाती भवतः । ख्यापनीयो वर्ण्यः साध्यधर्मः । तद्विपर्ययादवर्ण्य सिद्धो दृष्टान्तधर्मः । न्यायक० पृ. १८ ।।
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