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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - ३१, नैयायिक दर्शन चाक्षुषत्वात् ।” यहाँ चाक्षुषत्व हेतु पक्ष (शब्द) में नहीं है। (क्योंकि चाक्षुषत्व रुप में होता है, शब्द में नहीं ।) इसलिए "चाक्षुषत्व" हेतु असिद्ध है । चाक्षुषत्व यानि चक्षुजन्य प्रत्यक्षविषयत्व । है ? वह सिद्ध करना है। जब तक छाया में गति सिद्ध न हो तब तक छाया में द्रव्यत्व सिद्ध नहीं हो सकेगा । प्रकाश का जो अभाव है, वह छाया है। इसलिए उसमें गति नहीं हो सकेगी । छाया चलती हुई दिखती है। वह भ्रम है। द्रव्य में ही गुण और क्रिया रह सकते है । छाया तो प्रकाश का अभाव होने से गुण या क्रिया नहीं है । छाया में या अंधकार में किसी भी प्रकार का रुप नहीं है। क्योंकि किसी भी काली अथवा रुपवाली वस्तु को देखने के लिए बाह्य प्रकाश की जरुरत ही नहीं पडती है । छाया यह भी हलका सा अंधकार ही है। इसलिए छाया द्रव्य ही नहीं है। वैसे उसमें गति हो ही नहीं सकती। इसलिए गतिमत्त्व हेतु असिद्ध (साध्यसम) हेत्वाभास है। न्यायवार्तिक तथा विश्वनाथवृत्ति आदि ग्रंथो में असिद्ध हेत्वाभास के ( अ ) आश्रयासिद्धि, (ब) स्वरुपासिद्धि, ( क ) व्याप्यत्वासिद्धि, यह तीन भेद किये हुए है । परन्तु न्यायसूत्र, उसके उपर के भाष्य में और इस षडदर्शन समुच्चय में असिद्ध (साध्यसम) हेत्वाभास के तीन भेद किये नहीं है । ये तीन भेद तर्कसंग्रह में न्यायबोधिनीकार ने दिये है । इसे संक्षिप्त में देखें । १९९ (अ) आश्रयासिद्धि: "आश्रयासिद्धिर्नाम पक्षतावच्छेदकविशिष्टपक्षाप्रसिद्धिः ।" अर्थात् पक्षतावच्छेदक विशिष्ट पक्ष की अप्रसिद्धि को "आश्रयासिद्धि" कहा जाता है । सरल भाषा में कहे तो "यस्य हेतोः पक्षोऽप्रसिद्धः स आश्रयासिद्धिः" जिस हेतु का पक्ष अप्रसिद्ध हो, उसे आश्रयासिद्धि कहा जाता है । जैसे कि, "गगनारविन्दं सुरभि अरविन्दत्वात्" यहाँ " अरविन्दत्व" हेतु का पक्ष "गगनारविन्द" अप्रसिद्ध है। इसलिए 'अरविन्दत्वं' हेतु आश्रयासिद्ध है । (ब) स्वरुपासिद्धि : " स्वरुपासिद्धिर्नाम पक्षे हेत्वभावः " (अर्थात् यो हेतुः पक्षे न वर्तते स स्वरुपासिद्धिः) । जो हेतु पक्ष में रहता नहीं है, उसे स्वरुपासिद्धि कहा जाता है । जैसे कि "शब्दो गुणश्चाश्रुषत्वात्, रुपवत्" - यहाँ 'चाक्षुषत्व' हेतु पक्ष शब्द में नहीं है। क्योंकि, चाक्षुषत्व हेतु रुप में होता है, शब्द में नहीं । इसलिए चाक्षुषत्व हेतु स्वरुपासिद्ध 1 (क) व्याप्यत्वासिद्धि : “सोपाधिको हेतुर्व्याप्यत्वासिद्धः ।" उपाधिसहित हेतु को व्याप्यत्वासिद्ध कहा जाता है। “साध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकत्वमुपाधिः" अर्थात् जिसमें साध्य व्यापक हो और साधन अव्यापक हो, उसे उपाधि कहा जाता है । साध्याधिकरणवृत्ति अत्यन्ताभावीयप्रतियोगिता का अभाव जिस में है, वह "साध्य व्यापक" है और साधनाधिकरणवृत्ति अत्यान्ताभावीयप्रतियोगिता जिसमें है । वह साधनाव्यापक है । जैसे कि, “पर्वतो धूमवान् वह्नेः " यहाँ "आर्द्रेन्धनसंयोग" उपाधि है । साध्य धूमाधिकरण मात्र में आर्द्रेन्धनसंयोग का अभाव नहीं है । परन्तु घटादि का अभाव है । तादृशघटाद्यभावीय प्रतियोगिता का अभाव आर्द्रेन्धन संयोग में है । इसलिए साध्य धूम का व्यापकत्व आर्द्रेन्धनसंयोग में है । और जो यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्रार्द्रेन्धनसंयोगः इत्याकारक व्याप्ति में समजा जा सकता है । साध्यवह्नन्यधिकरण अयोगोलक में आर्द्रेन्धन संयोग का अभाव है। तादृश अभावीय प्रतियोगिता आर्द्रेन्धन संयोग में होने से साधन (वह्नि का) अव्यापकत्व आर्द्रेन्धनसंयोग में है। जो, यत्र यत्र वह्निस्तत्र तत्र नार्द्रेन्धनसंयोगः यथा अयोगोलके । इस व्याप्ति से समजा जा सकता है। इसलिए आर्द्रेन्धनसंयोग उपाधि है और तादृशउपाधि विशिष्ट वह्नि हेतु व्याप्यत्वासिद्ध है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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