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________________ १९८ षड्दर्शन समुञ्चय भाग-१, श्लोक - ३१, नैयायिक दर्शन हेत्वाभास कहा जाता है।) वे हेत्वाभास असिद्धआदि पाँच है। (एक शब्द के एक से ज्यादा अर्थ का स्फुरण होने से वक्ता के मंतव्य (अभिप्राय) से भिन्न अर्थ की कल्पना करके उसके वचन का खण्डन करना वह) छल है। जैसे कि "नवोदक कूप" । जिसके द्वारा पक्षादि दूषित नहीं होते, (फिर भी दूषित करने के लिए प्रयोजित किया जाता है, उस) दूषणाभास को 'जाति' कहा जाता है। ॥३१॥ व्याख्या-असिद्धविरुद्धानैकान्तिककालात्ययापदिष्टप्रकरणसमाः पञ्च हेत्वाभासाः । तत्र पक्षधर्मत्वं यस्य नास्ति, सोऽसिद्धC-41:, अनित्यः शब्दश्चाक्षुषत्वादिति १ । विपक्षे सन्सपक्षे चासन विरुद्धः C-42, नित्यः शब्दः कार्यत्वादिति २ । C-43पक्षादित्रयवृत्तिरनैकान्तिक:C-44 अनित्यः शब्दः प्रमेयत्वादिति ३ । हेतोः प्रयोगकाल: प्रत्यक्षागमानुपहतपक्षपरिग्रहसमयस्तमतीत्यापदिष्टः प्रयुक्तः, प्रत्यक्षागमविरुद्धे पक्षे वर्तमानः (इत्यर्थः) हेतुःकालात्ययापदिष्ट:C-45, अनुष्णोऽग्निः कृतकत्वात्, ब्राह्मणेन सुरा पेया द्रवद्रव्यत्वात् क्षीरवदिति ४ । स्वपक्षसिद्धाविव परपक्षसिद्धावपि त्रिरूपो हेतुः प्रकरणसमःC-46, प्रकरणे पक्षे प्रतिपक्षे च तुल्य इत्यर्थः । अनित्यः शब्दः पक्षसपक्षयोरन्यतरत्वात्, सपक्षवदित्येकेनोक्ते द्वितीयः प्राह यद्यनेन प्रकारेणानित्यत्वं साध्यते, तर्हि नित्यतासिद्धिरप्यस्तु, यथा नित्यः शब्दः पक्षसपक्षयोरन्यतरत्वात् सपक्षवदिति, अथवाऽनित्यः शब्दो नित्यधर्मानुपलब्धेर्घटवत्, नित्यः शब्दोऽनित्यधर्मानुप-लब्धेराकशवदिति । न चैतेष्वन्यतरदपि साधनं बलीयो यदितरस्य बाधकमुच्यते ५ । निग्रहस्थानान्तर्गता अप्यमी हेत्वाभासा न्यायविवेकं कुर्वन्तो वादे वस्तुशुद्धिं विदधतीति पृथगेवोच्यन्ते । टीकाका भावानुवाद : व्याख्या : असिद्ध (साध्यसम), विरुद्ध, अनैकान्तिक, कालात्ययापदिष्ट, (कालातीत-बाधित) प्रकरणसम (सत्प्रतिपक्ष) ये पांच हेत्वाभास है। (१) (४७)असिद्ध हेत्वाभास : जो हेतुका पक्षधर्मत्व रूप नहीं है, वह असिद्ध हेत्वाभास कहा जाता है । अर्थात् जो हेतु पक्ष में प्रवर्तित न हो, उसे असिद्ध हेत्वाभास कहा जाता है। जैसे कि "शब्दोऽनित्यः, (४७) न्यायसूत्र में असिद्ध हेत्वाभास का लक्षण : साध्याविशिष्टः साध्यत्वात् साध्यसमः । अर्थात् साध्य के साथ जिसकी समानता हो, उसमें साध्यत्व (सिद्धत्व नहीं) होने से वह हेतु साध्यसम हेत्वाभास कहा जाता है। इसका दूसरा नाम असिद्ध हेत्वाभास है। भावार्थ : पक्ष में जैसे वह्नि आदि साध्य होते है। वैसे साध्य को सिद्ध करने के लिये दिया गया हेतु भी सिद्ध करने योग्य हो अर्थात् सिद्ध न हो (असिद्ध हो) तो वह साध्य का साधक नहीं बन सकता है। जो सिद्ध हो वही हेतु बन सकता है। असिद्ध नहीं। जैसे कि "द्रव्यं छाया गतिमत्त्वात्" यहाँ छाया पक्ष है। द्रव्यत्व साध्य है। 'गतिमत्त्व' हेतु है। छाया द्रव्य है, क्योंकि उसमें गतिमत्त्व है। यहाँ गतिमत्त्व हेतु असिद्ध है। क्योंकि छाया में गति है या नहि (C-41-42-43-44-45-46) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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