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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ३१, नैयायिक दर्शन १९७ समाधान : ऐसा मत कहना । सन्मार्ग की प्रतिपत्ति के निमित्त से छल-जाति का सहारा लेने की भी अनुज्ञा है ही। अर्थात् सन्मार्ग की प्रतिपत्ति (ज्ञान) के निमित्तपन से स्व-परपक्ष के स्थापन से छल-जाति, आदि के उपन्यास के द्वारा भी पर के प्रयोग में (पक्ष में) दूषण का उत्पादन करने की अनुज्ञा है। इसलिए कहा है कि, वितंडा के आटोप से (फन से) मंडित ऐसे दुशिक्षित और कुतर्क से भरे हुए बहोत बोलनेवालो के मुंह क्या दूसरी तरह से (छल-आदि के सहारे बिना) जीतने के लिए (बंद करने के लिए) संभव है ?। ॥१॥ और उनसे छल गया (धोखा खाया हुआ) गतानुगतिक लोक मार्ग में से कुमार्ग की और जाता है। इसलिये करुणावान् मुनि (लोगो को मार्ग में लाने के लिए वाद में) छलादि को कहते है।।२।। ___ इस अनुसार संकट और अवसर आने पर छलादि के द्वारा भी स्वपक्ष की स्थापना करने की अनुज्ञा दी है। उपरांत (स्व द्वारा) दूसरे के विजय में धर्मध्वंसादि दोष का संभव नहीं है। इसलिए छलादि द्वारा भी विजय श्रेष्ठ है। ___ "सा वितण्डा तु" यहाँ "तु" निश्चय (अवधारण) के अर्थ में है। और उसका क्रम भिन्न है। वह "सा" के साथ लेना है। अर्थात् “सा तु" = सैव । वह विजिगीषु कथा ही वादि ने प्रयोजित कीये हुई पक्ष और प्रतिवादि ने प्रयोजित कीये हुई प्रतिपक्ष रहित (अर्थात् प्रतिपक्ष के साधन से रहित) हो, तो उसे वितंडा कहा जाता है। (४६)वितंडा करनेवाला (वादि या प्रतिवादि) अपने को स्वीकृत पक्ष का स्थापन किये बिना जो कुछ बोल के (वाद द्वारा) दूसरे के पक्ष का खंडन करते है। ॥३०॥ __ अथ हेत्वाभासादितत्त्वत्रयस्वरुपं प्रकटयति । अब ग्रंथकारश्री हेत्वाभास, छल और जाति, ये तीन तत्त्व के स्वरुप को प्रकट करते है। (मूल श्लो०) हेत्वाभासा-40 असिद्धाद्याश्छलं कूपो नवोदकः । जातयो दूषणाभासाः पक्षादिर्दूष्यते न यैः ।।३१।। श्लोकार्थ : (जो हेतु साध्य की सिद्धि करने के लिए समर्थ नहीं है, परन्तु हेतु जैसा दिखता है, उसे (४६) न्यायसूत्र में वितंडा का लक्षण : “स प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डा ॥१-२-३॥ अर्थात् जो जल्प प्रतिपक्ष की स्थापना के बगैर का हो, तो उसे वितंडा कहते है । वादि पक्ष की स्थापना करे, और प्रतिवादि अपने पक्ष की स्थापना किये बिना वादि के पक्ष का खंडन करे तो समजना कि प्रतिवादि वितंडा करता है। प्रतिवादि को पक्ष होता है, परन्तु वह स्थापना नहीं करता है, वह समजता है कि वादि के पक्ष का खंडन होगा तो मेरा पक्ष स्थापन हो ही जानेवाला है। इसलिए प्रतिवादि प्रतिपक्ष की स्थापना नहीं करता है। खंडन करने में वितंडावादि प्रमाण का, प्रमाणाभास का, छल का, निग्रहस्थान का भी उपयोग करता है। वितंडा का फल प्रतिवादि के गुप्त पक्ष की सिद्धि होना वही है। ऐसी वितंडारुप कथा मुमुक्षु को स्वपक्ष के समर्थन के लिए कभी भी उपयोग में नहीं लेनी चाहिए। केवल जितने की इच्छावाले राग-द्वेषवाले वादि-प्रतिवादि ही स्वपक्ष के समर्थन के लिए वितंडा का आश्रय लेते है। (C-40) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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