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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - ३०, नैयायिक दर्शन
गतानुगतिको लोकः कुमार्गं तत्प्रतारितः । मार्गादिति छलादीनि प्राह कारुणिको मुनिः । । २ । । ” [ न्यायम० प्रभा० पृ० ११] इति । संकटे प्रस्तावे च सति छलादिभिरपि स्वपक्षस्थापनमनुमतम् । परविजये हि न धर्मध्वंसादिदोषसंभवः, तस्माद्वरं बलादिभिरपि जयः 'सा वितण्डा त्वित्यादि ' शब्दोऽवधारणार्थो भिन्नक्रमश्च 1 सा तु सैव विजिगीषुकथैव प्रतिपक्षविवर्जिता वादिप्रयुक्तपक्षप्रतिपन्थी प्रतिवाद्युपन्यासः प्रतिपक्षस्तेन विवर्जिता रहिता प्रतिपक्षसाधनहीनेत्यर्थः वितण्डोदाहृता । C-32 वैतण्डिको हि स्वाभ्युपगतपक्षमस्थापयन् यत्किंचिद्वादेन परोक्तमेव दुषयतीत्यर्थः ।। ३० ।
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टीकाका भावानुवाद :
व्याख्या : विजय की अभिलाषा से वादि और प्रतिवादि के द्वारा प्रारंभ की गई हुई जो प्रमाणगोष्ठी है, उसमें छल-जाति-निग्रहस्थानादि के द्वारा दूसरे ने रखे हुये पक्षादि में दोषोत्पादान होता है, उसे विजिगीषु कथारुप (४५)जल्प कहा जाता है । कहने का मतलब यह है कि, वादि और प्रतिवादि की बातचीत चलती हो, उसमें वादि के द्वारा स्थापित किये हुए पक्षादि में जितने की इच्छा से प्रतिवादि छल-जाति-निग्रहस्थानादि
द्वारा दूषण बताये तो उसे विजिगीषु कथारुप जल्प कहा जाता है। "उदाहृतः " पद इस श्लोक में नहीं है । उसका पहले के श्लोक में से यहाँ संबंध करना ।
शंका : छल-जाति आदि के द्वारा दूसरे के पक्षादि में दूषण का उत्पादन करना, वह सज्जनो के लिए योग्य नहीं है। (इसलिए जल्प में उसका सहारा लेने के लिए कहा वह योग्य नहीं है ।)
(४५) न्यायसूत्र में जल्प का लक्षण ॥१-२-२ ॥ अर्थ गाथा - २९ में दिया गया है। वाद के अधिकारी मुमुक्षु तत्त्वज्ञानी और वीतराग मनुष्य होते है। जब कि जल्प के अधिकारी जय की इच्छा रखनेवाले होते है ।
प्रमाण और तर्क द्वारा पक्ष का स्थापन करना और प्रतिवादि के पक्ष का खंडन भी प्रमाण और तर्क द्वारा करना तथा पक्ष और प्रतिपक्ष का परिग्रह करना यह वाद का नियम है। जल्प में भी इस अनुसार होना चाहिए। जल्प में ज्यादा इतना जानना कि प्रमाणाभास का भी यदि आश्रय लिया जा सके तो लेना । यदि प्रतिवादि प्रमाणाभास को समज न सके और उसका खंडन न कर सके तो उसका पराजय होता है। यहां सामान्य से छल - जाति-निग्रहस्थान का स्वरुप बताया गया है। (विशेषस्वरुप तो आगे विस्तार से बताया गया है ।)
छल : एक शब्द के एक से ज्यादा अर्थ का स्फूरण होने से वक्ता के अभिप्राय से भिन्न अर्थ की कल्पना करके उसके वचन का खंडन करना वह छल ।
जाति : केवल साधर्म्य द्वारा अथवा केवल वैधर्म्य द्वारा खंडन करना वह जाति । निग्रहस्थान : "विपरीत समजना अथवा समज न सकना, उसका नाम निग्रहस्थान ।"
तीन से किसी वस्तु का प्रतिपादन नहीं हो सकता है । परन्तु वे केवल खंडन के लिए ही है ।
(C-39) - तु० पा० प्र० प० ।
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