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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - ३०, नैयायिक दर्शन
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अभ्यास के लिए जो प्रामाणिक वार्ता (कथा) होती है, उसे (४४)वाद कहा जाता है। (वादमें) आचार्य पूर्वपक्ष की स्थापना करके बोलते है और शिष्य उत्तरपक्ष का स्वीकार करके पूर्वपक्ष का खण्डन करता है। इस अनुसार पक्ष और प्रतिपक्ष के संग्रह के द्वारा निग्राहक, सभापति, जय, पराजय, छल, जाति आदि की अपेक्षा के बिना अभ्यास के लिए जहाँ गुरु-शिष्य गोष्ठी (बातचीत) करते है, उसे वाद जानना । ॥२९॥ अथ जल्पवितण्डे विवृणोति । अब जल्प और वितंडा के स्वरुप को बताते है। (मूल श्लो०) विजिगीषुकथा या तु छलजात्यादिदूषणा ।
स जल्पः- सा वितण्डा तु या प्रतिपक्षवर्जिता ।।३०।। श्लोकार्थ : छल, जाति आदि से दूषित जो जितने की इच्छा से कथा होती है, उसे जल्प कहा जाता है। (अर्थात् छल, जाति इत्यादि का इस्तेमाल करके केवल जितने की इच्छा से किया जाता हुआ वाद जल्प कहा जाता है।) और (वही विजिगीषु कथा) प्रतिपक्ष से रहित हो तो उसे वितंडा कहा जाता है। (- स्वपक्ष की स्थापना के बिना वाद द्वारा पर पक्ष का खंडन करना, उसे वितंडा कहा जाता है।) ॥३०॥
व्याख्या-या तु या पुनर्विजिगीषुकथा विजयाभिलाषिभ्यां वादिप्रतिवादिभ्यां प्रारब्धा प्रमाणगोष्ठी, कथंभूता, छलानि जातयश्च वक्ष्यमाणलक्षणानि, आदिशब्दान्निग्रहस्थानादिपरिग्रहः, एतैः कृत्वा दूषणं परोपन्यस्तपक्षादेर्दोषोत्पादनं यस्यां सा छलजात्यादिदूषणा, स विजिगीषुकथारूपो जल्पः उदाहत इति पूर्वश्लोकात्संबन्धनीयम् । ननु छलजात्यादिभिः परपक्षादेर्दूषणोत्पादनं सतां कर्तुं न युक्तिमिति चेत्, न । सन्मार्गप्रतिपत्तिनिमित्तं तस्याभ्यनुज्ञातत्वात् -38 । अनुज्ञातं हि स्वपक्षस्थापनेन सन्मार्गप्रतिपत्तिनिमित्ततया छलजात्याधुपन्यासैरपि परप्रयोगस्य दूषणोत्पादनम् । तथा चोक्तम्“दुःशिक्षितकुतर्काशलेशवाचालिताननाः । शक्याः किमन्यथा जेतुं वितण्डाटोप मण्डिताः ।।१।।
(४४) न्यायसूत्र में वाद का लक्षण : "प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः सिद्धान्तविरुद्धः पञ्चावयवोपपन्न
पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वादः । ॥१-२-१॥" अर्थात् जिसमें प्रमाण और तर्क से स्वपक्ष की सिद्धि और परपक्ष का खंडन किया जाये, जो सिद्धांत से अविरुद्ध हो, प्रतिज्ञादि पाँच अवयवो से युक्त हो तथा पक्ष और प्रतिपक्ष का स्वीकार हो, उसका नाम वाद है। एक ही अधिकरण में अस्तित्व और नास्तित्व, ऐसे दो विरुद्धधर्म होंगे तो ही वाद हो सकता है । दो विरुद्धधर्म भिन्न-भिन्न अधिकरण में माने जाये तो वाद नहीं हो सकता है। जैसे कि आत्मा है और आत्मा नहीं है, यहाँ एक ही अधिकरण में दो विरुद्ध धर्म होने से वाद हो सकेगा। परन्तु वादि कहता है कि आत्मा नित्य है और प्रतिवादि कहता है कि बुद्धि अनित्य है, तो दो विरुद्ध धर्मो का अधिकरण एक नहीं होने से वाद नहीं हो सकेगा।
(C-37-38)- तु० पा० प्र० प० ।
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