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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - २९, नैयायिक दर्शन
उस कथा के चार अंग है । (१) वादि, (२) प्रतिवादि, (३) सभापति, (४) प्राश्निक (सभासद = सभ्य) । विजिगीषुकथा के जल्प और वितंडा ऐसे दो नाम (संज्ञा) कहे हुए है और इसलिए कहा है कि “जैसे बीज अंकुरो के संरक्षण के लिए कांटो की शाखा का आवरण होता है, (वैसे) तत्त्व के (४२) अध्यवसाय (निश्चय) के संरक्षण के लिए जल्प और वितंडा है।"
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अब अवसर प्राप्त जल्प और वितंडा का लक्षण बताते है । ( वैसे तो वे दोनो का विवरण गाथा-२० में है।) वाद में जो जो बाते कही हो, उसमें से जो योग्य हो, उससे युक्त और छल, जाति, निग्रहस्थान द्वारा जिसमें साधन का उपालंभ हो उसे जल्प कहा जाता है । और वह जल्प प्रतिपक्ष की स्थापना से हीन (रहित) हो, तो वितंडा कहा जाता है । इस तरह से वाद, जल्प और वितंडा की स्पष्ट हुई।
अथ प्रकृतं प्रस्तुमः आचार्योऽध्यापको गुरुः, शिष्योऽध्येता विनेयः, तयोराचार्यशिष्ययोः 'पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहात्' पक्षः पूर्वपक्ष: प्रतिज्ञादिसंग्रहः, प्रतिपक्ष उत्तरपक्षः पूर्वपक्षप्रतिपन्थी पक्ष इत्यर्थः, तयोः परिग्रहात्स्वीकारात् अभ्यासस्य हेतुरभ्यासकारणम् या कथा प्रामाणिकी वार्त्ता अस कथा वाद उदाहृतः कीर्तितः । आचार्यः पूर्वपक्षं स्वीकृत्याचष्टे शिष्यश्चोत्तरपक्षमुररीकृत्य पूर्वपक्षं खण्डयति । एवं पक्षप्रतिपक्षसंग्रहेण निग्राहकसभापतिजयपराजयछलजात्याद्यनपेक्षतयाभ्यासार्थं यत्र गुरुशिष्य गोष्ठी कुरुतः, स वादो विज्ञेयः । । २९ ।।
टीकाका भावानुवाद :
अब मूल बात के उपर आये । आचार्य अध्यापक गुरु, शिष्य - अध्ययन करनेवाला शिष्य । वह आचार्य और शिष्य की प्रतिज्ञादि से युक्त पूर्वपक्ष की और पूर्वपक्ष के प्रतिपन्थि उत्तरपक्ष की स्थापना करके
(४३) यहाँ शंका होती है कि जल्प और वितंडा केवल जितने की इच्छा से होती है और उससे तत्त्व का निर्णय नहीं हो सकता। तो उसकी प्रमाण में गिनती किस तरह से होगी ? और उसे मुक्ति का साधन किस तरह से गिना जायेगा? और उससे तत्त्व के अध्यवसाय का (निश्चय का) संरक्षण किस तरह से होगा ?
इसका उत्तर यह है कि, जैसे बीज के अंकुरो को रक्षण की जरुरत होती है । इसलिए उसका चारो ओर कांटो की बाड (दिवाल) की जाती है, कि जिससे कोई उसको नुकसान न कर सके। उसी अनुसार तत्त्व के रक्षण के लिए किसी वक्त मुमुक्षु को जल्प और वितंडा की भी जरुरत पडती है ।
अथवा जल्प का ज्ञान इसलिए मुमुक्षु को देना है कि, मुमुक्षु वादि और प्रतिवादि किस प्रकार की कथा करना चाहते है, वह समज सके । इसलिए वाद का नाम लेकर कोई जल्प में उत्तर पडे तो मुमुक्षु को उसके साथ वार्ता (चर्चा) बंद कर देनी चाहिए। परन्तु ऐसे वक्त में मुमुक्षु को जल्प और वितंडा का ज्ञान होगा, तो ही जल्पक को वह समज सकता है। इस तरह से तत्त्व के अध्यवसाय के (निश्चय के) रक्षण के लिए जल्प और वितंडा आवश्यक है । इसलिए उसका अन्तर्भाव तत्त्वो में किया गया है। इसलिए वह मुक्ति का साधन बन सकता है।
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