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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - २९, नैयायिक दर्शन अथ वादतत्त्वमाह । अब दसवां वादतत्त्व को कहते है । (मूल श्लो०) आचार्यशिष्ययोः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहात् । या कथाभ्यासहेतुः स्यादसौ वाद - 34 उदाहृतः । ।२९।। श्लोकार्थ : पक्ष और प्रतिपक्ष की स्थापना करके अभ्यास के लिए आचार्य और शिष्य की जो कथा है, (अर्थात् आचार्य और शिष्य जो कथा करते है) उसे वाद कहा जाता है | ||२९|| व्याख्या-वादिप्रतिवादिनोः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहः C-35 कथा, सा द्विविधा, वीतरागकथा विजिगीषुकथा च । यत्र वीतरागेण गुरुणा सह शिष्यस्तत्त्वनिर्णयार्थे साधनोपालम्भौ करोति, साधनं स्वपक्षे, उपालम्भश्च परपक्षेऽनुमानस्य दूषणं सा वीतरागकथा वादसंज्ञयैवोच्यते । वादं प्रतिपक्षस्थापनाहीनमपि कुर्यात् । प्रनद्वारेणैव यत्र विजिगीषुर्जिगीषुणा सह लाभपूजाख्यातिकामो जयपराजयार्थं प्रवर्तते, वीतरागो वा परानुग्रहार्थं ज्ञानाङ्कुरसंरक्षणार्थं च प्रवर्तते, सा चतुरङ्गा वादिप्रतिवादिसभापतिप्रानिकाङ्गा विजिगीषुकथा जल्पवितण्डासंज्ञोक्ता - 36 । तथा चोक्तम्“तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थं जल्पवितण्डे, बीजप्ररोहसंरक्षणार्थं 'कण्टकशाखावरणवत्” [न्यायसू ४/२/ ५०] इति । यथोक्तक्षणोपपन्नश्छलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भो जल्पः । स प्रतिपक्षस्थापनाहीन वितण्डा [न्याय सू. १/२/२, ३] इति । ” वादजल्पवितण्डानां व्यक्तिः । १९३ टीकाका भावानुवाद : व्याख्या : वादि और प्रतिवादि की (अनुक्रम से) पक्ष और प्रतिपक्ष की स्थापनारुप कथा दो प्रकार की है। (१) वीतरागकथा, (२) विजिगीषुकथा । जहाँ वीतराग गुरु के साथ शिष्य तत्त्व के निर्णय के लिए स्वपक्ष की सिद्धिरुप साधन और परपक्ष में अनुमान का दूषण बताने का उपालम्भ करता है, वह वीतरागकथा है। उसे वाद संज्ञा से कहा जाता है। अर्थात् वीतरागकथा को वाद कहा जाता है। I वादि प्रतिपक्ष की स्थापना के बगैर भी वाद करता है। अर्थात् वादि तत्त्वनिर्णय के लिए स्वपक्ष की स्थापना के द्वारा, प्रतिपक्ष की स्थापना के बिना भी वाद करता है । जहाँ प्रश्नो के द्वार से जीतने की इच्छा के साथ-साथ लाभ, पूजा और प्रसिद्धि की चाहवाला, जो स्व जय और पर के पराजय के लिए प्रवर्तित होता है, उसे विजिगीषु कथा कहा जाता है । अथवा वीतरागी भी दूसरो के अनुग्रह के लिए और ज्ञानांकुर के संरक्षण के लिए प्रवर्तित होते है । उसे विजिगीषु कथा कहा जाता है। 1 (C-34-35-36) - तु० पा० प्र० प० । (१) "कण्टकशाखापरिचरणवत्, इति प्रत्यन्तरे ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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