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________________ १९२ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - २७, २८, नैयायिक दर्शन होने से) और उपलक्षण से (वह वस्तु) निश्चल है। तथा उसके उपर बेले चडी हुई है, इत्यादि स्थाणु के धर्मो से यहाँ (अभी) जंगल में स्थाणु होना चाहिए। (यथा उपदर्शन में है।) श्लोक में “हि" शब्द, यहाँ निश्चय या उत्प्रेक्षण में रहे हुए लिंग को देखकर होती संभावना) अर्थ में जानना । इसलिए भावार्थ इस तरह होगा - ___ अभी यहाँ वन में मानव का संभव न होने से और स्थाणु के धर्मो का दर्शन होता होने से यहाँ वन में स्थाणु ही हो सकता है। इसलिए कहा है कि.. __"यह अरण्य (जंगल) है। सूर्य अस्त हुआ है। (इसलिए)यहाँ अभी मानव का होना संभवित नहीं है। (इसलिए) निश्चय से पक्षीओ को भजनेवाला (अर्थात् पक्षी जिसके आसपास फिर रहे है, वह) स्मराराति समान नाम है, वह स्थाणु होना चाहिए । अर्थात् स्थाणु होना चाहिए। ॥१॥" (स्मराराति शंकर का एक नाम है और स्थाणु भी शंकर का नाम है। इसलिए शंकर (स्थाणु) समान नाम स्थाणु है।) यह (४१)तर्क की व्याख्या हुई । अब (४२)निर्णयतत्त्व को कहते है। पहले जिसका स्वरुप कहा उस स्वरुपवाले संदेह और तर्क के बाद ज्ञान होता है कि "यह स्थाणु ही है" अथवा "यह पुरुष ही है।" उसे निर्णय-निश्चय कहा जाता है। "यत् (यः)" और "तत् (सः) अर्थ का नियत संबंध होने से श्लोक में न कहा होने पर भी कहीं कहीं दिखाई देता है। इसलिए यहाँ (निर्णय की व्याख्या में) उन दोनो का संबंध करके व्याख्या की है। इस प्रकार अन्यत्र भी जानना ।।२७-२८।। (४१) न्यायसत्र में तर्क का लक्षण : (यहाँ तर्क और निर्णय का लक्षण उपर के लक्षण के साथ संगत होने पर भी रजुआत की शैली भिन्न है ।) वह देखे - "अविज्ञाततत्त्वाऽर्थे कारणोपपत्तिस्तत्त्वज्ञानार्थमूहस्तर्कः ॥१-१-४०॥" अर्थात् जिस तत्त्व का (अर्थका) ज्ञान हुआ नहीं है, उस अर्थ का ज्ञान पाने के लिए (कारणोपपत्तितः) व्याप्य के आरोप से तत्त्व के ज्ञान के लिए (ऊहः) व्यापक का आरोप करना उसका नाम तर्क है । कहने का मतलब यह है कि, जिस वस्तु के सामान्यधर्म समज में आये हो, परन्तु विशेषधर्म समज में न आये, तो उसे समजने के लिए कारण (लिंग-हेतु) की सिद्धि द्वारा साध्यवस्तु की सिद्धि की संभावना करना उसका नाम तर्क है । तर्क की उपयोगिता : तर्क प्रमाणो से भिन्न है। और तत्त्वज्ञान से भी भिन्न है। प्रमाण जिस वक्त (व्यभिचार आदि) शंका के कारण तत्त्वज्ञान को उत्पन्न करने में कुंठित बनते है। उस वक्त तर्क प्रमाण के मार्ग में आई हुई शंका को दर कर देता है। और बाद में प्रमाण तत्त्वज्ञान को उत्पन्न करने में समर्थ बनता है। तर्क प्रमाणो को मदद करनेवाला होने से वाद में उसका उपयोग होता है। तर्क के पाँच भेद माने गये है। (१) आत्माश्रय, (२) अन्योन्याश्रय, (३) चक्रक, (४) अनवस्था, (५) अबाधितार्थ प्रसंग। (४२) निर्णय : न्यायसूत्र : "विमृश्य पक्षप्रतिपक्षाभ्यामर्थावधारणं निर्णयः ॥१-१-४१॥ अर्थात् संदेह पाकर (विमृश्य) साधन और उपालंभ द्वारा (पक्षप्रतिपक्षाभ्याम्) अर्थ का अवधारण करना उसका नाम निर्णय है। यहाँ पक्ष अर्थात् साधक हेतु और प्रतिपक्ष अर्थात् बाधकहेतु लेना। इसलिए स्वपक्ष के साधकहेतु की स्थापना से और प्रतिपक्ष ने दिये हुए बाधकहेतु का खंडन करने से संदिग्ध अर्थ का निर्णय हो सकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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