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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - २७, २८, नैयायिक दर्शन
के प्रतिषेध के लिए प्रतिज्ञेय अर्थ सिद्ध हुआ है, एसा कथन करना उसका नाम (४०)निगमन।।
अथ तर्कतत्त्वम् । 'तर्कः सन्देहोपरमे भवेत्' । सम्यग्वस्तुस्वरूपानवबोधे किमयं स्थाणुर्वा पुरुषो वेति संदेहः संशयस्तस्योपरमे व्यपगमे C-32तर्कोऽन्वयधर्मान्वेषणरूपो भवेत् । कथमित्याह-'यथा काकादीत्यादि' यथेत्युपदर्शने काकादिसंपातात् वायसप्रभृतिपक्षिसंपतनादुपलक्षणत्वान्निश्चलत्ववल्यारोहणादिस्थाणुधर्मेभ्यश्चात्रारण्यप्रदेशे स्थाणुना कीलकेन भाव्यं भवितव्यम् । हिशब्दोऽत्र निश्चयोत्प्रेक्षणार्थो द्रष्टव्यः । संप्रति हि वनेऽत्र मानवस्यासंभवात्स्थाणुधर्माणामेव दर्शनाञ्च स्थाणुरेवात्र घटत इति । तदुक्तम्-“आरण्यमेतत्सवितास्तमागतो, न चाधुना संभवतीह मानवः । ध्रुवं तदेतेन खगादिभाजा, भाव्यं स्मरारातिसमाननाम्ना ।।१ ।।" [ ] इत्येष तर्कः ।। अथ निर्णयतत्त्वमाह'उर्ध्वमित्यादि' पूर्वोक्तस्वरूपाभ्यां संदेहतर्कभ्यामूर्ध्वमनन्तरं यः प्रत्ययः स्थाणुरेवायं पुरुष एव वेति प्रतीतिः स निर्णयो निश्चयो C-33मतोऽभीष्टः । यत्तदावर्थसंबन्धादनुक्तावपि क्वचन गम्येते, तेनात्र तौ व्याख्यातौ । एवमन्यत्रापि मन्तव्यम् ।।२७-२८ ।। टीकाका भावानुवाद :
अब तर्कतत्त्व को कहते है। संदेह के उपरम (नाश) से तर्क होता है। अर्थात् संदेह का उपरम (नाश) होने पर तर्क की उत्पत्ति होती है।
मतलब यह है कि, वस्तु के स्वरुप का अच्छी तरह से अवबोध (ज्ञान) न होने के कारण, "क्या यह स्थाणु है या पुरुष ? इस अनुसार संदेह होता है और इस संदेह के दूर होने पर (वस्तुके) अन्वयधर्मो के अन्वेषण (तलाश) रुप तर्क की उत्पत्ति होती है।
प्रश्न : किस तरह से तर्क की उत्पत्ति होती है? उत्तर : जैसे कि, कौंओ जैसे दूसरे पक्षीओ का संपात होने से (अर्थात् उस वस्तु की ओर कौओ फिरते
(१) अन्वयी उदाहरण की अपेक्षा से उपसंहार किया जाता है। जैसे कि, उत्पत्तिधर्मक घटादिद्रव्य अनित्य दिखाई देते है "तथा शब्द भी उत्पत्तिधर्मक है।" इस वाक्य में शब्द के उत्पत्तिधर्मकत्व का उपसंहार होता है। (१) शब्दः अनित्यः (२) उत्पत्तिधर्मकत्वात्, (३) यो य उत्पत्तिधर्मकः स सोऽनित्यः दृष्टः, यथा घटः (४) तथा च शब्दः
(२) व्यतिरेकी उदाहरण की अपेक्षा रखकर उपसंहार किया जाये तो 'न तथा' ऐसा शब्द रखकर साध्य का उपसंहार किया जाता है । (१) शब्दः अनित्यः (२) उत्पत्तिधर्मकत्वात्, (३) यो य उत्पत्तिधर्मको न भवति,
सस अनित्यो न भवति यथा आत्मा, (४) न च तथा शब्दः। (४०) निगमन : साध्य अर्थ अवयव द्वारा सर्वप्रमाणो से सिद्ध होने के बाद उसमें किसी भी प्रकार का विपरीत प्रसंग
नहीं है, ऐसा बताने के लिए प्रतिज्ञा के अर्थ का फिर से कथन करना, उसका नाम निगमन कहा जाता है। (C-32-33) - तु० पा० प्र० प० ।
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