________________
१९०
षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - २७, २८, नैयायिक दर्शन
(२) (३७ हेतु : अर्थात् साधन = लिंग को बतानेवाला वचन । जैसे कि, धूमवत्त्वात् । (३) (३८ दृष्टांत : उदाहरण के कथन को दृष्टांत कहा जाता है। उसके दो प्रकार है। (१) अन्वयी दृष्टांत और (२) व्यतिरेकी दृष्टांत । अन्वयी दृष्टांत – यो यो धूनवान्, स स कृशानुमान्, यथा महानसम् । व्यतिरेकी दृष्टांतः - "यो यः कृशानुमान्न भवति, स स धूमवान्न भवति यथा जलम् ।"
(४) उपनय : हेतु का उपसंहार करनेवाले वचन को उपनय कहा जाता है। अर्थात् हेतु का पक्ष में उपसंहार करनेवाले "तथा चायं" वचन को उपनय कहा जाता है। "तथा चायं" धूमवांश्चायम् ( पर्वतः)
(५) निगमन : हेतु के उपदेश द्वारा साध्यधर्म का उपसंहार करना, उसे निगमन कहा जाता है। अर्थात् हेतु के उपदेश द्वारा साध्यधर्म का पक्ष में उपसंहार करनेवाले "तस्मात् तथा" वचन को निगमन कहा जाता है । तस्मात् तथा = धूमवत्त्वात् कृशानुमान् ( अयं = पर्वतः) (ये पाँच वाक्यो का सामान्य अर्थ इस अनुसार है । (१) साध्यधर्म का धर्मी (पक्ष) के साथ संबंध बताना वह प्रतिज्ञा, पक्षः साध्यवान् । (२) उदाहरण के साथ समानता अथवा असमानता रखनेवाले धर्म को साधन के तौर पे बताना उसका नाम हेतु । (३) दो धर्मो का जहाँ साध्य-साधन भाव बताया जाये वह उदाहरण। (४) साधनरुप धर्म का साध्यरुप धर्म के साथ सामानाधिकरण्य सिद्ध करना उसका नाम (३९) उपनय । (५) विपरीत अर्थ
"अग्निमान् पर्वतः" यह वाक्य न बोला जाये तो "धूमात्" यह अकेला वाक्य बोलने का कुछ अर्थ सिद्ध नहीं होगा। इसलिए न्याय से सिद्ध करने में प्रतिज्ञा महत्वपूर्ण अंग है। न्यायसूत्र “साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञा ॥१-१-३३॥ अर्थात् साध्य का जो निर्देश-कथन है, उसे प्रतिज्ञा कहा जाता है।
प्रशस्तपादभाष्य में कहा है कि प्रतिज्ञा प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, स्वशास्त्र और स्ववचन से विरुद्ध नहीं होनी चाहिए । जैसे कि (१) प्रत्यक्षविरोधी : "अनुष्णोऽग्निः", (२) अनुमानविरोधी : “घनम् अम्बरम्" (आकाश अवयववाला पदार्थ नहीं है।) (३) आगमविरोधी : "ब्राह्मणेन सुरा पेया" (४) स्वशास्त्र विरोधी: वैशेषिकस्य सत्कार्यम् इति (वैशेषिक सत्कार्यवादि है ।) (५) स्ववचनविरोधी : "न
शब्दोऽर्थप्रत्यायकः" (३७) न्यायसूत्र में हेतु का लक्षण साध्य के साधर्म्य से और वैधर्म्य से, ऐसे दो प्रकार बताया गया है। "उदाहरणसाधर्म्यात्
साध्यसाधनं हेतुः ॥१-१-३४॥ अर्थात् उदाहरण के साथ साधर्म्य होने से साध्य का जो साधन हो, उसे हेतु कहा जाता है। जैसे कि, अग्निरुप साध्य की सिद्धि साधन धूमरूप अर्थ बता सकती है। "तथा वैधात्" ॥१-१
३५॥ अर्थात् उसी अनुसार साध्य का साधक हेतु व्यतिरेक से भी हो सकता है। (३८) न्यायसूत्र में दृष्टांत का लक्षण : “साध्यसाधर्म्यात् तद्धर्मभावी दृष्टान्त उदाहरणम् ॥१-१-३६।।" अर्थात्
साध्य-पक्ष के साथ साधर्म्य से पक्ष के धर्म को बताता हुआ जो दृष्टांत है, इसे उदाहरण कहा जाता है। यहाँ सूत्र में दृष्टांत यह अर्थात्मक है और उदाहरण यह वाक्यात्मक तीसरा अवयव है । इसलिए दृष्टांतरुप अर्थ से उसका
वाचक वाक्य उपलक्षित है। (३९) उपनय का लक्षण न्यायसूत्रकार दूसरी तरह से करते है । "उदाहरणापेक्षस्तथेत्युपसंहारो न तथेति वा
साध्यस्योपनयः । ॥१-१-३८॥ अर्थात् अन्वयी और व्यतिरेकी उदाहरण की अपेक्षा रखकर साध्य का उपसंहार करना उसका नाम उपनय कहा जाता है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org