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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - २७,२८, नैयायिक दर्शन अवयवादितत्त्वत्रयस्वरुपं प्ररुपयति । अब ग्रंथकारश्री अवयव, तर्क और निर्णय, ये तीन तत्त्वो के स्वरुप की प्ररुपणा करते है - (मू० श्लो०) प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तोपनया निगमस्तथा । अवयवाः पञ्च तर्कः संदेहोपरमे भवेत् ।।२७।। यथा काकादिसंपातात्स्थाणुना भाव्यमत्र हि । ऊर्ध्वं संदेहतर्काभ्यां प्रत्ययो निर्णयो मतः ।।२८ ।। युग्मम् ।। श्लोकार्थ : प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टांत, उपनय और निगमन, ये पाँच अवयव है। संदेह का उपरम (नाश) होने के बावजूद तर्क होता है । जैसे कि, कौआ इत्यादि पक्षीओ के संपात से (अभी) यहाँ स्थाणु होना चाहिए । संदेह और तर्क से उर्ध्व (अनंतर) जो ज्ञान होता है, उसे निर्णय माना जाता है। ।।२७-२८|| ___ व्याख्या-अत्यवाःC-24 पञ्च, के पञ्चेत्याह प्रतिज्ञा हेतुर्दृष्टान्त उपनयो निगमशब्देन निगमनं चेति । तत्र प्रतिज्ञाC-25 पक्षः धर्मधर्मिवचनं, कृशानुमानयं सानुमानित्यादि । हेतु:C-26 साधनं C-2'लिङ्गवचनं, धूमवत्त्वादित्यादि । C-28दृष्टान्त उदाहरणाभिधानं, तद्विविधं, अन्वयमुखेन व्यतिरेकमुखेन च । C-2 अन्वयमुखेन यथा, यो यो धूमवान्, स स कृशानुमान्, यथा महानसमित्यादि । व्यतिरेकमुखेन यथा, यो यः कृशानुमान्न भवति, स स धूमवान्न भवति, यथा जलमित्यादि । C-30उपनयो हेतोरुपसंहारकं वचनम्, धूमवांश्चायमित्यादि । C-31निगमनं हेतूपदेशेन साध्यधर्मोपसंहरणम्, धूमवत्त्वात्कृशानुमानित्यादि ।। व्याख्या : (२५)अवयव पाँच है। ये पाँच अवयव कौन से है ? प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टांत, उपनय और निगमन ये पांच अवयव है। (श्लोक में “निगम" है उसके बदले "निगमन" जानना ।) (१) (३६)प्रतिज्ञा : धर्मविशिष्टधर्मी का निर्देश करना, उसे प्रतिज्ञा कहा जाता है। अर्थात् साध्यविशिष्ट पक्षबोधक वचन को प्रतिज्ञा कहा जाता है। जैसे कि, कृशानुमान् अयं सानुमान् ( = अग्निमान् पर्वतः) यह प्रतिज्ञावाक्य है। (३५) न्यायमञ्जरीकार ने अवयव की व्याख्या इस अनुसार की है - "साधनीयार्थप्रतिपत्तिपर्यन्तवचनकला पैकदेशत्वम् अवयवत्वम्" अर्थात् दूसरे को समजाने के लिए इच्छित अर्थ जितने वाक्यो से सम्पूर्ण तरह से समजाया जा सकता है, इस वाक्यो में से प्रत्येक वाक्य अवयव कहा जाता है। (३६) प्रतिज्ञा की आवश्यकता क्या है ? प्रतिज्ञा इसलिए दी जाती है कि, आगे दिये जानेवाला हेतु का आधार अथवा विषय वह बन सके। यदि प्रतिज्ञावाक्य उच्चारित न किया जाये, तो हेतु वाक्य निराधार अथवा निविषय हो जाये । यदि (C-24-25-26-27-28-29-30-31) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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