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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - २६, नैयायिक दर्शन
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तथा सांख्यो ने सभी अर्थ सत् में से ही उत्पन्न होते है। परन्तु असत् में से नहीं ऐसा माना है। (इसलिए सांख्य सत्कार्यवादि कहे जाते है। उनकी मान्यता है कि, उपादानकारण में कार्य अवश्य विद्यमान (सत्) (मौजूद) होता है, तो ही कार्य पैदा हो सकता है। सत्त्व, रजस और तमस् प्रकृति में है। इसलिये सभी विकृति में भी आते है।)
नैयायिको ने सभी अर्थो को असत् में से सामग्री के वश से उत्पन्न होते है, ऐसा माना है । (इसलिए नैयायिक असत्कार्यवादि कहे जाते है। उनकी मान्यता है कि, उपादानकारण में कार्य विद्यमान नहीं होता है (असत्) । अर्थात् कार्य पहले था ही नहीं। किन्तु बाद में सामग्री के वश से (कारण में से) होता है। परन्तु जैनो ने सत् में से और असत् में से कार्यकी उत्पत्ति मानी है। (इसलिए जैन सदसत् कार्यवादि है। जैनो की मान्यता है कि, उपादानकारण में कार्य विद्यमान (सत्) भी होता है और अविद्यमान (असत्) भी होता है। मतलब यह है कि कारण और कार्य, कथंचित् भिन्न होने से असत्कार्यवाद भी हो सकता है तथा कारण और कार्य कथंचित् अभिन्न होने से सत्यकार्यवाद भी हो सकता है। जैसे मिट्टी और घडा कथंचित् भिन्न होने से मिट्टी में घट अविद्यमान (असत्) है और इसलिए कथंचित् भिन्नता की अपेक्षा से जब मिट्टी में से घडा बनेगा तब घट अर्थ असत् में से बना ऐसा कहा जायेगा और वह असत्कार्यवाद होगा।
तथा मिट्टी और घडा कथंचित् अभिन्न होने से मिट्टी में घट (घडा) विद्यमान (सत्) है और इसलिए कथंचित् अभिन्नता की अपेक्षा से जब मिट्टी में से घट बनेगा, तब घट अर्थ सत् में से बना ऐसा कहा जायेगा
और वह सत्कार्यवाद होगा। अथवा मिट्टीमें घट (घडा) मृत्पिडरुप से (मिट्टी के पिंड के रुप से) विद्यमान (सत्) है और घटाकाररुप से अविद्यमान (असत्) है, इस प्रकार सत्-असत् उभयवाद का स्वीकार करनेवाला जैनदर्शन है।)
(३) अधिकरण सिद्धांत : जो सिद्धांत है कि जो प्रतिज्ञात अर्थ है, उसकी सिद्धि होने के बाद प्रसंग से (प्रसंग प्राप्त) अधिक अर्थ की सिद्धि हो, उसे अधिकरण सिद्धांत कहा जाता है।
जैसे कि कार्यत्वादि हेतु से पृथ्वी आदि में बुद्धिमत्कर्तृत्व सामान्य की सिद्धि होने के बाद उसके कर्ता के तौर पे नित्यज्ञान, कार्य करने की नित्य इच्छा और नित्य प्रयत्न के आधार के रुप
उपरांत, "यह जगत ईश्वर से उत्पन्न हुआ है।" यह सिद्धांत प्रतितंत्रसिद्धांत है। क्योंकि यह सिद्धांत नैयायिको और वैशेषिको को मान्य है। सांख्यो-जैनो को मान्य नहीं है।
उपरांत वेदांतीओ ने "माया" को माना है और दूसरे शास्त्र माया को नहीं मानते है । इसलिए उसे प्रतितंत्रसिद्धांत कहा जाता है। विश्वनाथकति में कहा है कि "वादिप्रतिवाद्यैकतरमात्राभ्यपगमतस्तदेकतरस्य प्रतितन्त्रसिद्धांतः।" अर्थात वादि और प्रतिवादि. वे दोनो में से एक कछ खास अर्थ को मानता हो. जब दूसरा वादि उस अर्थ को न मानता हो, वह अर्थ प्रतितंत्रसिद्धांत कहा जाता है। जैसे कि नैयायिको ने शब्द को अनित्य माना है, जब कि मीमांसको ने शब्द को नित्य माना है। इसलिए शब्द का नित्यत्व या अनित्यत्व मानना उसे प्रतितंत्रसिद्धांत गिना जाता है।
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