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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - २६, नैयायिक दर्शन
कहा है कि,
‘“जब तक आलंबनरुप (३१) दृष्टांत के द्वारा (अर्थ का) अवलंबन नहीं किया जाता, तब तक विद्वान को (भी) विषय बनकर (सामने) आया हुआ अर्थ चलित होता है - निश्चित नहीं होता है। अर्थात् अर्थ का निश्चय नहीं होता है | ॥१॥"
उपरांत सिद्धांत चार प्रकार के है । सिद्धांत के किस कारण से चार भेद है ?
उत्तर : सर्वतंत्रादि के भेद से चार प्रकार है । (१) सर्वतंत्र सिद्धांत, (२) प्रतितंत्र सिद्धांत, (३) अधिकरण सिद्धांत, (४) अभ्युपगम सिद्धांत । ऐसे सिद्धांत के चार भेद जानना । यहाँ तंत्र शब्द से शास्त्र जानना।
(१) सर्वतंत्र सिद्धांत : सभी शास्त्रो के साथ जिसका विरोध नहीं है और स्वशास्त्र में प्रतिपादित अधिकृत जो अर्थ है, वह (३२) सर्वतंत्र सिद्धांत कहा जाता है और वह सर्वशास्त्रो को स्वीकार्य विषय है।
जैसे कि, प्रमेय के साधन प्रमाण । (प्रमाण का फल प्रमेय है। इसलिए प्रमेय का साधन प्रमाण है ।) घ्राण, रसन, त्वक्, चक्षु और श्रोत्र, ये पाँच इन्द्रियाँ और उसके गंधादि विषय, प्रमाण के द्वारा प्रमेय का इत्यादि ।
ज्ञान,
यहाँ
प्रमाण, इन्द्रिय, अर्थ इत्यादि सर्वशास्त्रो को संमत (मान्य) होने से वह प्रतिपादित अर्थ सर्वतन्त्र सिद्धांत कहा जाता है ।
(२) (३३) प्रतितन्त्र सिद्धांत : समानशास्त्र में सिद्ध और परशास्त्र में असिद्ध अर्थ को प्रतितंत्र सिद्धांत कहा जाता है। जैसे कि, नैयायिको और वैशेषिको ने इन्द्रियों को भौतिक (भूत से उत्पन्न हुई) माना है। और सांख्यो ने अभौतिक माना है ।
(३१) न्यायसूत्र में दृष्टांत का लक्षण : लौकिकपरीक्षकाणां यस्मिन्नर्थे बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्तः ॥१-१-२५॥ अर्थात् लौकिक और परीक्षक मनुष्यो का जिस विषय में बुद्धि का साम्य हो, उसे दृष्टांत कहा जाता है । (३२) न्यायसूत्र में सर्वतंत्रसिद्धांत का लक्षण : सर्वतन्त्राविरुद्धस्तन्त्रेऽधिकृतोऽर्थः सर्वतन्त्रसिद्धान्तः ॥ १-१-२८॥ अर्थ स्पष्ट है।
(३३) न्यायसूत्र में प्रतितन्त्रसिद्धांत का लक्षण : समानतन्त्रसिद्धः परतन्त्रासिद्धः प्रतितन्त्रसिद्धांतः ॥१-१-२९ ॥ समानतंत्र में जो अर्थ सिद्ध हो और परतंत्र में जो अर्थ असिद्ध हो, ऐसा जो अर्थ है उसे प्रतितन्त्रसिद्धांत कहा जाता है।
बहोत बातो में (विषयमें) नैयायिको की वैशेषिको के साथ समानता होने से वे दोनो समानतंत्र कहे जाते है । जैसेकि, वैशेषिक और नैयायिक दोनो पृथ्वी, अप्, तैजस, वायु और आकाश, इन पाँच ' भूत में से अनुक्रम से घ्राण, रसन, चक्षु, स्पर्शन और श्रोत्र इन्द्रियाँ बनी हुई है, ऐसा मानते है और इसलिए उनको समानतंत्र कहा जाता है।
जबकि, सांख्यो ने इन्द्रियो को पंचमहाभूतमें से उत्पन्न नहीं माना है। सांख्यो ने माना है कि प्रकृति में से महत् (बुद्धि) तत्त्व उत्पन्न होता है । बुद्धि में से अहंकार और अहंकार में से घ्राणादि पाँच ज्ञानेन्द्रिय उत्पन्न होती है। इसलिए सांख्यो को परतन्त्र कहा जायेगा । इसलिए इन्द्रियो को भौतिक मानना, उसे प्रतितन्त्रसिद्धांत (उस उस (प्रति) दर्शन में मान्य सिद्धांत ) कहा जायेगा ।
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