SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 298
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - २६, नैयायिक दर्शन १८५ ह्यन्वयव्यतिरेकयुक्तोऽर्थः स्खलति, यावन्न स्पष्टदृष्टान्तावष्टम्भः । उक्तं च-“तावदेव चलत्यर्थो मन्तुर्विषयमागतः । यावन्नोत्तम्भनेनैव दृष्टान्तेनावलम्ब्यते ।।१।।" [ ] 'सिद्धान्तस्तु' सिद्धान्तः पुनश्चतुर्भेदो भवेत्, । कुत इत्याह-सर्वतन्त्रादिभेदतः सर्वतन्त्रादिभेदेन । प्रथमः सर्वतन्त्रसिद्धान्तः, आदिशब्दात्प्रतितन्त्रसिद्धान्तोऽधिकरणसिद्धान्तोऽभ्युपगमसिद्धान्तश्च वेदितव्यः । इह तन्त्रशब्देन शास्त्रं विज्ञेयम् तत्र-20 सर्वतन्त्राविरुद्धः स्वतन्त्रेऽधिकृतोऽर्थः सर्वतन्त्रसिद्धान्तः सर्वेषां शास्त्राणां संप्रतिपत्तिविषयः, यथा प्रमाणानि प्रमेयसाधनानि, घ्राणादीनीन्द्रियाणि, गन्धादयस्तदर्थाः, प्रमाणेन प्रमेयस्य परिच्छेद इत्यादि । C-2'समानतन्त्रप्रसिद्धः परतन्त्रासिद्धः प्रतितन्त्रसिद्धान्तः यथा भौतिकानीन्द्रियाणि यौगानां काणादादीनां च, अभौतिकानि सांख्यानाम् । तथा सांख्यानां सर्वं सदेवोत्पद्यते न पुनरसत्, नैयायिकादीनां सर्वमसदेवोत्पद्यते सामग्रीवशात्, जैनानां तु सदसदुत्पद्यत इत्यादि । यस्य सिद्धान्तस्य प्रक्रियमाणस्य प्रतिज्ञार्थस्य प्रसङ्गेनाधिकस्य सिद्धिः, सोऽधिकरणसिद्धान्तःC-22, यथा कार्यत्वादेः क्षित्यादौ बुद्धिमत्कारणसामान्यसिद्धावन्यस्य तत्कारणसमर्थस्य नित्यज्ञानेच्छाप्रयत्नाधारस्य तत्कारणस्य सिद्धिरिति । प्रौढवादिभिः स्वबुद्ध्यतिशयचिख्यापयिषया यत्किंचिद्वस्त्वपरीक्षितमभ्युपगम्य विशेषः परीक्ष्यते, सोऽभ्युपगमसिद्धान्तःC-23, यथास्तु द्रव्यं शब्दः, स तु किं नित्योऽनित्यो वेति शब्दस्य द्रव्यत्वमनिष्ट-मभ्युपगम्य नित्यानित्यत्वविशेषः परीक्ष्यते एवं चतुर्विधः सिद्धान्तः ।।२६।। टीकाका भावानुवाद : व्याख्या : प्रत्यक्ष निश्चय जिस में हो, वह दृष्टांत कहा जाता है। अर्थात् जिस में प्रत्यक्ष रुप से निश्चय होता है, वह दृष्टांत बनता है। फिर प्रश्न है कि, यह दृष्टांत कैसा होता है। उत्तर : जो उपन्यस्त करने पर वादि और प्रतिवादि दोनो को परस्पर विवाद का विषय न हो, वह दृष्टांत कहा जाता है। इसलिए कहने का मतलब यह है कि, अनुमानादि में वादि और प्रतिवादि दोनो को संमत (मान्य हो ऐसा) ही दृष्टांत का उपन्यास करना चाहिए । (रखना चाहिए ।) प्रश्न : (सांतवे तत्त्व) अवयव में (पाँच अवयवों में) यह दृष्टांत कहा जायेगा, तो यहाँ पृथग् (दूसरे) तत्त्व के तौर पे उसका उपन्यास क्यों किया है ? (क्या रक्खा है ?) उत्तर : यद्यपि पाँच अवयवो में दृष्टांत कहा जायेगा, फिर भी दृष्टांत साध्य-साधनधर्म के प्रतिबंध (संबंध) के ग्रहण का स्थान है। (साध्य वह्नि और साधन धूम के संबंध ग्रहण का स्थान जैसेकि-महानस है।) इसलिए दृष्टांत का उपदेश पृथक् (अलग) किया है। उपरांत जब तक स्पष्ट दृष्टांत का अवलंबन-- आधार न हो, तब तक अन्वय-व्यतिरेक से युक्त अर्थ (विषय) स्खलना ही पाता है। (टिकता नहीं है।) (C-20-21-22-23) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy